-वंशवाद की राजनीति का स्याह पक्ष


नवीन श्रीवास्तव

भारतीय राजनीति में वंशवाद या भाई-भतीजावाद कोई नयी बात नहीं है. अलग-अलग समय में वंशवाद के मसले पर कांग्रेस को पानी पी पीकर कोसने वाले राजनीतिक दल भी इससे अछूते नहीं हैं. उन्हें भी यह रोग लग चुका है. सारधा घोटाले की सीबीआइ जांच, बर्दवान विस्फोट कांड की एनआइए जांच व विपक्षियों के चौतरफा हमलों से हिली पश्चिम बंगाल सरकार की मुखिया ममता बनर्जी ने भी अंतत: अपने परिवार पर ही भरोसा जताया है. अपने राजनीतिक सिपहसालार मुकुल राय व उनके करीबियों के पर कतरने के बाद उन्होंने अपने भतीजे (अभिषेक बनर्जी)का विधिवत अभिषेक किया है. अपनी पार्टी के दो युवा संगठनों तृणमूल युवा व तृणमूल यूथ कांग्रेस का विलय कर अभिषेक को उसका मुखिया बना दिया है. उन्हें भी लगने लगा है कि अभिषेक के जरिये पार्टी का चेहरा बदला जा सकता है. सवाल यह है कि क्या उनकी पार्टी में दूसरे योग्य नेताओं की कमी हो गयी है या वह भी कांग्रेस समेत दूसरे दलों की तरह भाई-भतीजावाद को ही पल्लवित और पुष्पित कर रही हैं. इससे पहले भी दूसरे दल मसलन समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), द्रमुक, इंडियन नेशनल लोक दल आदि एक ही परिवार की पार्टी बन कर रह गये हैं. इन दलों के मुखियाओं ने अपने ही वंश व भाई-भतीजों को आगे बढ़ाया है. मुलायम सिंह यादव का तो लगभग पूरा परिवार ही राजनीति में कदम रख चुका है. उनके  भाई शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव, बेटे अखिलेश, बहू डिंपल, भतीजा धर्मेंद्र यादव राजनीति में हैं. लालू यादव के कुनबे को भला कौन नहीं जानता. प्रश्न यह है कि कांग्रेस से अपने को अलग बतानेवाली पार्टियों के आकाओं को क्यों लग रहा है कि परिवार के लोग ही उन्हें उबार पायेंगे. क्या उनके दल में दूसरे योग्य लोग नहीं हैं या ये दूसरे लोगों को आगे आने नहीं देना चाहते. सत्ता की चाबी अपने ही हाथ में रखने की महत्वकांक्षा पाले ये नेता देश का नुकसान ही कर रहे हैं. दूसरे योग्य लोग अपनी ही पार्टी में दरकिनार हो रहे हैं सिर्फ भाई-भतीजावाद के चलते. देश हित व राज्य हित पर परिवार हित को तरजीह दी जा रही है. यह राजनीति का स्याह पक्ष है. राजनेता राजनीति में शुचिता की बात किस हक से करते हैं.   
 
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