रमेश द्विवेदी
जब बांग्ला अदब या साहित्य यहां अंगरेज़ों से पंजा लड़ा रहा था, तब शराब-शबाब व तवायफों के इर्द-गिर्द घूमनेवाली रवायती उर्दू ग़ज़ल कोठे से उतर रही थी. ये बात बंगाल से जिस्म-ओ-जां से जुड़े हिंदी-उर्दू के एक शायर को इस कदर खली कि उसने ये कसम खा ली कि वह अपने शेर-ओ-शायरी में ‘मां’ को महबूबा का दरज़ा देगा. उसका तर्क था कि तुलसीदास के महबूब अगर श्रीरामचंद्र हो सकते हैं, तो मेरी महबूबा ‘मां’ क्यों नहीं हो सकती? और अपनी कसम को मियां ने यूं निभाया कि वह आज हिंदी-उर्दू शायरी के अज़ीमुश्शान शायर मुनव्वर राना बन गये. शुक्रवार देर रात जब घुसुड़ी के इकबाल मंच से राना साहब जलवा-अफरोज़ हुए, तो एकबारगी लगा जैसे हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब ज़िंदा हो गयी. उनके बेमिसाल शेरों, अशआर व ग़ज़लों को सुनकर दाद व वाहवाही की गंगा बह उठी.
अरसे तक शायरी के कोठों तक महदूद रहने से व्यथित राना साहब ने अपने भगीरथ प्रयास पर कहा :
मामूली एक कलम से कहां तक घसीट लाये / हम इस ग़ज़ल को कोठे से ‘मां’ तक घसीट लाये.
मैं अपने आपको इतना समेट सकता हूं / कहीं भी कब्र बना दो मैं लेट सकता हूं.
मंज़िल करीब आते ही एक पांव कट गया / चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया.
न झुकाने से झुका है, न नीचा होगा / ये मेरा सर है कहीं रखो ऊंचा होगा.
मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती / हवा सब के लिए ये मौसमी अच्छी नहीं होती.
‘मुनव्वर’ मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना / जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती.
दावर-ए-हश्र तुङो मेरी इबादत की कसम / ये मेरा नाम-ए-अमाल इज़ाफी होगा
नेकियां गिनने की नौबत ही नहीं आयेगी / मैंने जो मां पे लिखा है वही काफी होगा
कवि-सम्मेलनों/मुशायरों में ठहाके/कहकहे तो अक्सर सुनाई देते हैं, पर आंखों में नमी मुनव्वर राना जैसे हुनरमंद ही ला पाते हैं. दर्द के अहसास की तपिश जब दिल को तपाती है, तभी आंसू छलकता है. राना की शायरी अपनों की जुदाई के ग़म से तप कर निकली है, लिहाजा सीधे दिल पर असर करती है. अपने बेमिसाल हुनर पर राना का इज़हार-ए-ख़याल देखिये :
खुद से चलके नहीं ये तर्ज़-ए-सुख़न आया है/ पांव दाबे हैं बुज़ुर्गो के तो ये फ़न आया है.
उनकी शायरी के फ़कीराना अंदाज़ पर गौर फरमायें :
आये हो, तो इक मुहर-ए-गदागर भी लगा दो
इस चांद से माथे पे ये झूमर भी लगा दो
अजदाद की खुशबू मुङो जाने नहीं देगी
इस पेड़ के नीचे मेरा बिस्तर भी लगा दो.
मुमकिन है मेरे बाद की नस्लें मुङो ढूंढ़ें
बुनियाद में इस नाम का पत्थर भी लगा दो.
अनगिनत हवाई यात्रएं कर चुके राना साहब का वास्ता विमान-परिचारिकाओं (एयर होस्टेस) से पड़ा, तो उन्हें सूझा :
अब सिर्फ जहाज़ों में सफर करती है पगली / बचपन में वो कहती थी मेरे पर भी लगा दो.
आ कहीं मिलते हैं हम, ताकि बहारें आ जायें
इससे पहले कि ताल्लुक में दरारें आ जायें
ये जो ख़ुद्दारी का मैला-सा अंगौछा है मेरा
मैं अगर बेच दूं इसको कई कारें आ जायें.
दरबार में जब ओहदों के लिए पैरों पे अना गिर जाती है
क़ौमों के सर झुक जाते हैं, चकरा के हया गिर जाती है
अब तक तो हमारी आंखों ने बस दो ही तमाशे देखे हैं
या क़ौम के रहबर गिरते हैं, या लोकसभा गिर जाती है
ढलती उम्र पर नौजवानों से राना साहब की अपील :
और कुछ रोज़ यूं ही बोझ उठा लो बेटे
चल दिये हम तो मयस्सर नहीं होनेवाले
एक ज़ख्मी परिंदे की तरह जाल में हम हैं
ऐ इश्क़! अभी तक तेरे जंजाल में हम हैं
अब आपकी मर्ज़ी है संभालें न संभालें
खुशबू की तरह आपके रुमाल में हम हैं
हंसते हुए चेहरे ने भरम रखा हमारा
वो देखने आया था किस हाल में हम हैं
हम फूट के रोने लगे जब मौत के डर से
नेकी ने कहा, नाम-ए-अमाल में हम हैं
हमने भी संवारे हैं बहुत गेसू-ए-उर्दू
दिल्ली में अगर आप हैं, बंगाल में हम हैं.
आखिर में भीगी पलकों से मुनव्वर राना ने जब ये शेर पढ़ा, तो कई सामईन की पलकें भी भीग गयीं :
मौला, ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊं
जिस शान से आया हूं, उसी शान से जाऊं
बच्चों की तरह पेड़ की शाखों पे मैं कूदूं
चिड़ियों की तरह उड़के मैं खलिहान से जाऊं.
हर लफ़्ज़ महकने लगे लिखा हुआ मेरा
मैं लिपटा हुआ यादों के लोबान से जाऊं
ज़िंदा मुङो देखेगी तो मां चीख उठेगी
क्या ज़ख्म लिये पीठ पे मैदान से जाऊं.
क्या सूखे हुए फूल की किस्मत का भरोसा
मालूम नहीं कब तेरे गुलदान से जाऊं
मौला, ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊं
जिस शान से आया हूं, उसी शान से जाऊं.
बाली नगरपालिका के प्रायोजन में मजलिस-ए-इत्तिहाद की ओर से घुसुड़ी में आयोजित उक्त मुशायरे/कवि-सम्मेलन में मेजबान शायर हबीब हाशमी, जाैहर कानपुरी के साथ जय कुमार रुसवा- -अचानक मऊवी-सुनील कुमार तंग-इरम अंसारी(चारों मजाहिया शायर),अफज़ल मंगलोरी, हामिद भुसावली, अख्तर बरहानपुरी, सबीना अदीब (कानपुर), सुनयना त्रिपाठी(इलाहाबाद), संध्या तिवारी(ग़ाज़ीपुर), नूरी परवीन, यूनुस सहर, ख़्वाजा अहमद हुसैन, अहमद कमाल हाशमी, ज़हीर सिकंदरपुरी, डॉ सुल्तान साहिर, आतिश रज़ा, जमशेद आदिल, विजय कुमार (रांची), शगुफ्ता सासारामी, मेराज अहमद मेराज (कुल्टी), मंजूर आदिल, मुश्ताक़ दरभंगवी, रुस्तम कुरैशी (आसनसोल), शहाबुद्दीन फैज़, इकबाल ज़हीर आदि ने अपने-अपने कलामों से खूब समां बांधा. मुशायरे की निज़ामत (संचालन) जाने-माने उदघोषक शकील अंसारी ने की. बाली नगरपालिका में विपक्ष के नेता रियाज़ अहमद की पहल और अशफाक अहमद के संरक्षण में आयोजित मुशायरे को सफल बनाने में मजलिस-ए-इत्तिहाद के मोहम्मद नईम (संयोजक), मोहम्मद वक़ील (सचिव), निसार अहमद (कैशियर), सुधीर बुबना, मोहम्मद आरिफ, मोइउद्दीन आदि सक्रिय रहे.