IANS |

कमाल यह है कि बेबी हालदार
आज भी खुद को काजेर मेये (काम करने वाली बाई) कहती हैं। 29 साल पहले जम्मू
एवं कश्मीर के किसी ऐसी जगह में उनका जन्म हुआ, जहां उनके पिता सेना में
थे। अभाव और दुख की पीड़ा झेलती बेबी अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि अपनी
किताब आलो आंधारि को मानती हैं।
बेबी हालदार की आत्मकथा आप भी सुनिए, कुछ उन्हीं की जुबानी :
पिता सेना में थे,लेकिन घर से उनका सरोकार कम ही था। सेना की नौकरी से रिटायर होने के बाद पिता बिना किसी को कुछ बताए, कई-कई दिनों के लिए कहीं चले जाते। लौटते तो हर रोज घर में कलह होता। एक दिन पिता कहीं गए और उसके कुछ दिन बाद मां मन में दुख और गोद में मेरे छोटे भाई को लेकर यह कह कर चली गई कि बाजार जा रही हैं। इसके बाद मां घर नहीं लौटीं। इधर, पिता ने एक के बाद एक तीन शादियां कीं। इस दौरान मैं कभी अपनी नई मां के साथ रहती, कभी अपनी बड़ी बहन के ससुराल में और कभी अपनी बुआ के घर।
मां की अनुपस्थिति ने मन में पहाड़ जैसा दुख भर दिया था। यहां-वहां रहने और पिता की लापरवाही के कारण पढ़ने-लिखने से तो जैसे कोई रिश्ता ही नहीं बचा था। सातवीं तक की पढ़ाई करते-करते 13 वर्ष की उम्र में मेरी शादी,मुझसे लगभग दुगनी उम्र के एक युवक से कर दी गई। फिर तो जैसे अंतहीन दुखों का सिलसिला-सा शुरू हो गया। पति द्वारा अकारण मार-पीट लगभग हर रोज की बात थी। पति की प्रताड़ना और पैसों की तंगी के बीच जि़ल्लत भरे दिन सरकते रहे।
उसी क्रम में दो जून की रोटी की मशक्कत के बीच पति का अत्याचार बढ़ता गया। अंतत: एक दिन अपने बच्चों को लेकर घर से निकल गई। दुगार्पुर,फरीदाबाद,गुड़गांव। एक घर से दूसरे घर, नौकरानी के बतौर लंबे समय तक काम किया। नौकरानी के बजाय बंधुआ मजदूर कहना ज्यादा बेहतर होगा। सुबह से देर रात तक की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी खुशियों की कोई रोशनी कहीं नजर नहीं आ रही थी।
ऐसे ही किसी दिन मेरे एक जान-पहचान वाले ने मुझे गुड़गांव में एक नए घर में काम दिलवाया। यहां मैंने पाया कि इस घर का हर शख्स मेरे साथ इस तरह व्यवहार करता था, जैसे मैं इस घर की एक सदस्य हूं। घर के बुजुर्ग मुखिया, जिन्हें सब की तरह मैं भी तातुश कहती थी, (यह मुझे बाद में पता चला कि इसका अर्थ पिता है) अक्सर मुझसे मेरे घर-परिवार के बारे में पूछते रहते। उनकी कोशिश रहती कि हर तरह से मेरी मदद करें।
कुछ माह बाद अतिक्रमण हटाने के दौरान मेरे किराये के घर को भी ढहा दिया गया और अंतत: तातुश ने मुझे अपने बच्चों के साथ अपने घर में रहने की जगह दी। इसके बाद दूसरे घरों में काम करने का सिलसिला भी खत्म हो गया। तातुश के घर में सैकड़ों-हजारों किताबें थीं। बाद में पता चला कि तातुश प्रोफेसर के साथ-साथ बड़े कथाकार भी हैं। उनकी कहानियां और लेख इधर-उधर छपते रहते हैं। उनका नाम प्रबोध कुमार है। और यह भी कि तातुश हिंदी के सबसे बड़े उपन्यासकार प्रेमचंद के नाती हैं।
अक्सर किताबों की साफ-सफाई के दौरान मैं उन्हें उलटते-पलटते पढ़ने की कोशिश करती। खास तौर पर बांग्ला की किताबों को देखती तो मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते।तातुश ने एक दिन मुझे ऐसा करते देखा तो उन्होंने एक किताब देकर मुझे उसका नाम पढ़ने को कहा। मैंने सोचा, पढ़ तो ठीक ही लूंगी लेकिन गलती हो गई तो? फिर तातुश ने टोका तो मैंने झट से किताब का नाम पढ़ दिया-आमार मेये बेला-तसलीमा नसरीन। तातुश ने किताब देते हुए कहा कि जब भी फुर्सत मिले, इस किताब को पढ़ जाना।
फिर एक दिन कॉपी-पेन देते हुए तातुश ने अपने जीवन के बारे में लिखने को कहा। मेरे लिए इतने दिनों बाद कुछ लिखने के लिए कलम पकड़ना किसी परीक्षा से कम न था। मैंने हर रोज काम खत्म करने के बाद देर रात गए तक अपने बारे में लिखना शुरू किया। पन्नों पर अपने बारे में लिखना ऐसा लगता था, जैसे फिर से उन्हीं दुखों से सामना हो रहा हो।
तातुश उन पन्नों को पढ़ते, उन्हें सुधारते और उनकी जेराक्स करवाते। लिखने का यह काम महीनों चलता रहा। एक दिन मेरे नाम एक पैकेट आया, जिसमें कुछ पत्रिकाएं थीं। अंदर देखा तो देखती रह गई। अपने बच्चों को दिखाया और उन्हें पढ़ने को कहा। मेरी बेटी ने पढ़ा- बेबी हालदार! मेरे बच्चे चौंक गए- मां, किताब में तुम्हारा नाम। तातुश के कहानीकार दोस्त अशोक सेकसरिया और रमेश गोस्वामी ने कहा,ये तो एन फ्रैंक की डायरी से भी अच्छी रचना है।
बेबी हालदार कहती हैं, मैं अपनी कहानी लिखती गई..लिखती गई। फिर एक दिन एक प्रकाशक आए। वो मेरी किताब छापना चाहते थे। तातुश ने बांग्ला में लिखी मेरी आत्मकथा का अनुवाद हिंदी में कर दिया था। इस तरह मेरी पहली किताब छपी- आलो आंधारि।
कोलकाता के रोशनाई प्रकाशन ने इस किताब को प्रकाशित किया है। कुछ ही समय में किताब का दूसरा संस्करण निकला.. फिर इसका बांग्ला संस्करण। ये कहानी कहती है कि इंसान के लिए अच्छा यही है कि वह काम को छोटे या बड़े के रूप में देखने के बदले अपनी नजर वहां रखे जहां से उसकी जिंदगी को कोई मुकम्मल जहां हासिल हो सके।
बेबी हालदार की आत्मकथा आप भी सुनिए, कुछ उन्हीं की जुबानी :
पिता सेना में थे,लेकिन घर से उनका सरोकार कम ही था। सेना की नौकरी से रिटायर होने के बाद पिता बिना किसी को कुछ बताए, कई-कई दिनों के लिए कहीं चले जाते। लौटते तो हर रोज घर में कलह होता। एक दिन पिता कहीं गए और उसके कुछ दिन बाद मां मन में दुख और गोद में मेरे छोटे भाई को लेकर यह कह कर चली गई कि बाजार जा रही हैं। इसके बाद मां घर नहीं लौटीं। इधर, पिता ने एक के बाद एक तीन शादियां कीं। इस दौरान मैं कभी अपनी नई मां के साथ रहती, कभी अपनी बड़ी बहन के ससुराल में और कभी अपनी बुआ के घर।
मां की अनुपस्थिति ने मन में पहाड़ जैसा दुख भर दिया था। यहां-वहां रहने और पिता की लापरवाही के कारण पढ़ने-लिखने से तो जैसे कोई रिश्ता ही नहीं बचा था। सातवीं तक की पढ़ाई करते-करते 13 वर्ष की उम्र में मेरी शादी,मुझसे लगभग दुगनी उम्र के एक युवक से कर दी गई। फिर तो जैसे अंतहीन दुखों का सिलसिला-सा शुरू हो गया। पति द्वारा अकारण मार-पीट लगभग हर रोज की बात थी। पति की प्रताड़ना और पैसों की तंगी के बीच जि़ल्लत भरे दिन सरकते रहे।
उसी क्रम में दो जून की रोटी की मशक्कत के बीच पति का अत्याचार बढ़ता गया। अंतत: एक दिन अपने बच्चों को लेकर घर से निकल गई। दुगार्पुर,फरीदाबाद,गुड़गांव। एक घर से दूसरे घर, नौकरानी के बतौर लंबे समय तक काम किया। नौकरानी के बजाय बंधुआ मजदूर कहना ज्यादा बेहतर होगा। सुबह से देर रात तक की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी खुशियों की कोई रोशनी कहीं नजर नहीं आ रही थी।
ऐसे ही किसी दिन मेरे एक जान-पहचान वाले ने मुझे गुड़गांव में एक नए घर में काम दिलवाया। यहां मैंने पाया कि इस घर का हर शख्स मेरे साथ इस तरह व्यवहार करता था, जैसे मैं इस घर की एक सदस्य हूं। घर के बुजुर्ग मुखिया, जिन्हें सब की तरह मैं भी तातुश कहती थी, (यह मुझे बाद में पता चला कि इसका अर्थ पिता है) अक्सर मुझसे मेरे घर-परिवार के बारे में पूछते रहते। उनकी कोशिश रहती कि हर तरह से मेरी मदद करें।
कुछ माह बाद अतिक्रमण हटाने के दौरान मेरे किराये के घर को भी ढहा दिया गया और अंतत: तातुश ने मुझे अपने बच्चों के साथ अपने घर में रहने की जगह दी। इसके बाद दूसरे घरों में काम करने का सिलसिला भी खत्म हो गया। तातुश के घर में सैकड़ों-हजारों किताबें थीं। बाद में पता चला कि तातुश प्रोफेसर के साथ-साथ बड़े कथाकार भी हैं। उनकी कहानियां और लेख इधर-उधर छपते रहते हैं। उनका नाम प्रबोध कुमार है। और यह भी कि तातुश हिंदी के सबसे बड़े उपन्यासकार प्रेमचंद के नाती हैं।
अक्सर किताबों की साफ-सफाई के दौरान मैं उन्हें उलटते-पलटते पढ़ने की कोशिश करती। खास तौर पर बांग्ला की किताबों को देखती तो मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते।तातुश ने एक दिन मुझे ऐसा करते देखा तो उन्होंने एक किताब देकर मुझे उसका नाम पढ़ने को कहा। मैंने सोचा, पढ़ तो ठीक ही लूंगी लेकिन गलती हो गई तो? फिर तातुश ने टोका तो मैंने झट से किताब का नाम पढ़ दिया-आमार मेये बेला-तसलीमा नसरीन। तातुश ने किताब देते हुए कहा कि जब भी फुर्सत मिले, इस किताब को पढ़ जाना।
फिर एक दिन कॉपी-पेन देते हुए तातुश ने अपने जीवन के बारे में लिखने को कहा। मेरे लिए इतने दिनों बाद कुछ लिखने के लिए कलम पकड़ना किसी परीक्षा से कम न था। मैंने हर रोज काम खत्म करने के बाद देर रात गए तक अपने बारे में लिखना शुरू किया। पन्नों पर अपने बारे में लिखना ऐसा लगता था, जैसे फिर से उन्हीं दुखों से सामना हो रहा हो।
तातुश उन पन्नों को पढ़ते, उन्हें सुधारते और उनकी जेराक्स करवाते। लिखने का यह काम महीनों चलता रहा। एक दिन मेरे नाम एक पैकेट आया, जिसमें कुछ पत्रिकाएं थीं। अंदर देखा तो देखती रह गई। अपने बच्चों को दिखाया और उन्हें पढ़ने को कहा। मेरी बेटी ने पढ़ा- बेबी हालदार! मेरे बच्चे चौंक गए- मां, किताब में तुम्हारा नाम। तातुश के कहानीकार दोस्त अशोक सेकसरिया और रमेश गोस्वामी ने कहा,ये तो एन फ्रैंक की डायरी से भी अच्छी रचना है।
बेबी हालदार कहती हैं, मैं अपनी कहानी लिखती गई..लिखती गई। फिर एक दिन एक प्रकाशक आए। वो मेरी किताब छापना चाहते थे। तातुश ने बांग्ला में लिखी मेरी आत्मकथा का अनुवाद हिंदी में कर दिया था। इस तरह मेरी पहली किताब छपी- आलो आंधारि।
कोलकाता के रोशनाई प्रकाशन ने इस किताब को प्रकाशित किया है। कुछ ही समय में किताब का दूसरा संस्करण निकला.. फिर इसका बांग्ला संस्करण। ये कहानी कहती है कि इंसान के लिए अच्छा यही है कि वह काम को छोटे या बड़े के रूप में देखने के बदले अपनी नजर वहां रखे जहां से उसकी जिंदगी को कोई मुकम्मल जहां हासिल हो सके।