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बिहार के राजगीर में अाज भी मौजूद है ऐतिहासिक जरासंध अखाड़ा, जहां कभी मल्लयुद्ध के दौरान पांडव भीमसेन ने श्रीकृष्ण के इशारे पर मगध सम्राट जरासंध का वध किया था. |
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द्वापर युग में महाभारत से पहले पांडव भीमसेन मल्लयुद्ध के दौरान मगध सम्राट जरासंध को पटखनी देते हुए । |
देवोत्थान एकादशी को ही दो रानियों से आधा-आधा पैदा हुआ था जरासंध
आज भी मगध समाज जरासंधेश्वर जयंती को बतौर जेठान पर्व मनाता है.
क्या आप जानते हैं, हमारे पौराणकि ग्रंथ व ऐतिहासिक दस्तावेज ऐसे पात्नों, योद्धाओं व विभूतियों से भरे पड़े हैं, जिन्हें जनमानस उनकी नकारात्मक भूमिका के लिए ही जानता-समझता आया है. पर ऐसे विभूतियों के व्यक्तित्व का एक और पक्ष भी है, जिसे देश-समाज के ज्यादातर लोग नहीं जानते. ऐसी विभूतियों या योद्धाओं को आज भी कतिपत जातियां-जनजातियां ना सिर्फ आदर्श मानती हैं, बल्कि उन्हें विधिवत पूजती हैं. उसे परवाह नहीं है कि धर्म-पुराण या आज के धर्म-गुरु ऐसी विभूतियों को कैसे व किस रूप में परिभाषित करते हैं. हाल में पता चला कि आज भी मिहषासुर को पूजनेवाले हैं, जो ऐसे ही कितने दैत्यों या नकारात्मक किरदारों को सदियों से बदस्तूर पूजते आ रहे हैं. इस बात से बिल्कुल बेपरवाह कि आज का आधुनिक समाज उन्हें पिछड़ी आदिम जाति या जनजाति माने या मानने लगे. ऐसा ही एक समाज है मगही मगध समाज, जो आज भी द्वापर युग में विचित्न ढंग से जन्मे और 10 हजार हाथियों का बल रखनेवाले मगध सम्राट जरासंध को जरासंधेश्वर मान कर पूजता है. इस समाज का मानना है कि कार्तिक सुदी देवोत्थान या हरि-प्रबोधिनी एकादशी को ही जरासंध का जन्म हुआ था. इस दिन को मगध समाज जेठान पर्व के रूप में मनाता है. उसका दावा है कि जरासंध ही प्राचीन भारत का प्रथम चक्र वर्ती सम्राट था. तीन नवंबर 2014 यानी आज पड़ी देवोत्थान या देव-उठनी एकादशी और जरासंध जयंती भी मनाई जा रही है. उन्हें इसकी फिक्र नहीं है कि आज लोग जरासंध को किस तरह लेते हैं. उनके लिए तो जरासंध परमप्रतापी जरासंधेश्वर है, जिनके शौर्य, पराक्र म के आगे साक्षात श्रीकृष्ण भी मथुरा छोड़ कर द्वापर में जा बसे थे और रणछोड़दास कहलाये.प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि बिहार के राजगीर में आज भी जरासंध का अखाड़ा है, जहां पर बाकायदा मगध समाज के लोग जुट कर जरासंध की धूमधाम से आज भी जन्म-जयंती मना रहे हैं.
शिक्त से नहीं, युक्ति से मारा गया मगध सम्राट जरासंध
मगध देश में कभी वसुवंश (कहीं-कहीं सोमवंश) के राजा बृहद्रथ का राज था. वह बड़ा शूरवीर व धर्म-परायण था. उसने काशिराज की जुड़वां बेटियों से विवाह किया. राजा बृहद्रथ ने अपनी पित्नयों को वचन दिया कि वह दोनों को कभी दो आंख से नहीं देखेगा. विवाह के कई महीने बीत जाने के बाद भी राजा को संतान नहीं हुई. तब राजा मंत्रियों को राजपाट सौंप कर अपनी दोनों पित्नयों को लेकर वन में तप करने चले गये. एक दिन वन में मिहर्ष गौतम के वंशज चंडकौशिक मुनि पधारे. राजा बृहद्रथ ने मुनिवर का स्वागत किया और उनको अपनी व्यथा सुनाई. मुनि को राजा की समस्या सुन कर दया आ गई. मुनि चंडकौशिक तुरंत आम के पेड़ के नीचे बैठे और ध्यान लगाया. तभी उस पेड़ से एक आम गिर पड़ा. मिहर्ष ने उसे लेकर राजा को देते हुए कहा - ये लो, इसे पत्नी को खिला देना, तुम्हारा दु:ख दूर हो जायेगा. राजा ने उस फल के दो टुकड़े किये और अपनी दोनों पित्नयों को एक-एक टुकड़ा खिला दिया. फल खाने के बाद दोनों पित्नयां गर्भवती हो गईं. जब बच्चे पैदा हुए, तो दोनों रानियां देख कर हैरान हो गईं, क्योंकि ये बच्चे पूरे नहीं, बल्किआधे-आधे पैदा हुए थे. इस बीच, लोक-लिहाज से रानियों ने राजा को सूचना भेजी कि उनका गर्भपात हो गया है और अपनी दासियों से कहा कि वे दोनों नवजात अर्धाग को बाहर जंगल में फेंक दें. दासियों ने आज्ञा का पालन किया. जंगल में जहां पर दोनों मांस के लोथड़े फेंके गये थे, वहीं से जरा नामक राक्षसी गुजरी. उसने बच्चों के दोनों टुकड़े देखे, तो उन्हें हाथ से उठाया. मांसल टुकड़ों को आपस में छुआते ही दोनों जुड़ गये और इस नवजात शिशु ने भयंकर गजर्ना की. इससे डर कर राक्षसी भाग गयी. कुछ दूर जाने पर वह पलभर को ठिठकी. फिर वह एक सुंदर युवती का रूप धर कर राजा बृहद्रथ के पास गयी और इस चमत्कार के बारे में बताया. राजा ने अपनी दोनों रानियां को इस चमत्कारिक घटना के बारे में बताया, तो उनकी छाती में दूध उतर आया और वे उस बच्चे को छाती से लगाने को व्याकुल हो उठीं. चूंकि जरा नामक उस वनदेवी या राक्षसी ने उन दोनों इनसानी मांस के लोथड़ों की संधि (जोड़ना) करायी थी, अत: शिशु का नाम जरासंध रखा गया. इस प्रकार जरासंध का जन्म हुआ. यूं मुनि चंडकौशिक के वरदान से जरासंध इतना हट्टा-कट्टा व बलशाली था कि कोई उसका मुकाबला नहीं कर सकता था.
ऐसे बनी जरासंध के वध की योजना
एक बार युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा - ‘हे केशव, मित्नो का सुझाव है कि मैं राजसूय-यज्ञ कर चक्र वर्ती सम्राट का पद प्राप्त करूं. परंतु राजसूय यज्ञ तो वही कर सकता है, जो सारे संसार के नरेशों द्वारा पूजित व सम्मानित हो, अत: मार्गदर्शन करें.’
श्रीकृष्ण बोले - ‘मगध देश के राजा जरासंध ने आस-पास के सारे राजाओं को परास्त कर उन्हें अपने अधीन कर लिया है. क्षित्रय राजाओं पर जरासंध की धाक जमी है. सभी उसकी शिक्त का लोहा मानते हैं और उसके नाम से डरते हैं. यहां तक कि चेदिराज शिशुपाल जैसा शिक्त संपन्न राजा भी उसके अधीन हो कर उसका सेनापति बना हुआ है. जरासंध के रहते हुए और कौन चक्र वर्ती सम्राट पद पा सकता है? जब महाराज उग्रसेन के नासमझ पुत्न कंस ने जरासंध की दोनों बेटियों अिस्त व प्राप्ति से ब्याह किया और उसका नातेदार साथी बना था, तब मैंने और मेरे बंधुओं ने जरासंध के विरु द्ध युद्ध किया था. कई वर्षो तक दिव्य अस्त्न-शस्त्नों के साथ जरासंध की सेना से युद्ध चला. अंतत: हमें मुंह की खानी पड़ी. जरासंध के चलते हमें मथुरा छोड़ कर द्वारका में बसना पड़ा. (मतांतर से कुछ लोग इसे श्रीकृष्ण के जनमानस में प्रचिलत एक और नाम रणछोड़दास से जोड़ कर देखते हैं.)
हे धर्मराज, आपके चक्र वर्ती सम्राट होने में दुर्योधन व कर्ण को भले आपित्त ना हो, परंतु जरासंध से इसकी आशा रखना बेकार है. बगैर युद्ध के जरासंध नहीं मान सकता. उसने आज तक पराजय नहीं ङोली है. ऐसे अजेय पराक्र मी राजा जरासंध के जीते-जी आप राजसूय-यज्ञ नहीं कर पायेंगे. येन-केन-प्रकारेण पहले उसका वध करना होगा. उसने जिन 86 क्षित्रय राजाओं को अब तक बंदी बना रखा है, उन्हें छुड़ाना होगा. तभी आपका राजसूय-यज्ञ करना उचित रहेगा.’
श्रीकृष्ण की बातें सुन कर युधिष्ठिर बोले - ‘आपका कहना सही है वासुदेव. आकांक्षा ऐसी अिग्न है, जो कभी नहीं बुझती. मेरी भलाई इसी में है कि मैं चक्र वर्ती सम्राट बनने का विचार त्याग दूं और जो कुछ ईश्वर ने दिया है उसी में संतुष्ट रहूं.’ पर धर्मराज की विनयशीलता पास ही खड़े अनुज भीम को नहीं भायी. भीम बोल पड़े - ‘प्रयत्नशीलता राजाओं का खास गुण है. जो अपनी शिक्त को स्वयं नहीं पहचानते, उनके पौरु ष को धिक्कार है.’ श्रीकृष्ण बोले - निस्संदेह अत्याचारी जरासंध का वध ठीक होगा. जरासंध का लक्ष्य कुल सौ क्षित्रय राजाओं को बंधक बना कर यज्ञानुष्ठान में उन सब की बलि देना है. पशुबलि के बदले बंदी राजाओं की बलि देने की बदनीयत पाले अत्याचारी जरासंध का संहार ही न्यायोचित है.
केशव ने सुझाव दिया, यदि भीम व अर्जुन सहमत हों, तो हम तीनों जरासंध को उसकी परिणति तक पहुंचा सकते हैं. इससे खीझ धर्मराज बोले - मैं नहीं चाहता कि अर्जुन व भीम को समस्या आये. यह विचार त्याग देना चाहिए.
तब अर्जुन भी बोल पड़े - ‘हम यशस्वी भरतवंश की संतान होकर भी साहस ना दिखायें, तो आमजन और हममें क्या अंतर रह जायेगा.’ (जबकि कुरु एक चंद्रवंशी राजा था, जिसके वंशज कौरव कहलाये, जिनका शासन आज की दिल्ली यानी प्राचीन हिस्तनापुर व आस-पास के देश पर था)
इससे प्रसन्न कृष्ण बोले - धन्य हो, कुंती पुत्न अजरु न, मुङो तुमसे यही आशा थी. मृत्यु से डरना नासमझी है. एक ना एक दिन सबको मरना ही है. नीतिशास्त्न कहते हैं कि जो शिक्त से वश्य (वश में किये जाने योग्य) ना हो, उसे युक्ति से वश में करना चाहिए. ऐसे में शिक्त से नहीं, युक्ति से चल कर शत्नु पर विजय पाना ही क्षित्रयोचित या क्षात्न-धर्म है. इस जरासंध के वध को लेकर श्रीकृष्ण, युधिष्ठर, भीम व अर्जुन में सहमति बन गई.
ऐसे हुई थी मगध सम्राट जरासंध की मृत्यु
जरासंध को मुनि चंडकौशिक का वरदान तो था. ऊपर से वह भगवान शिव पर परम भक्त भी था. इसलिए जरासंध के पास 10 हजार हाथियों का बल था. यह श्रीकृष्ण जानते थे. उन्हें यह भी पता था कि जरासंध के शरीर को दो अलग-अलग भागों में बांट कर ही खत्म किया जा सकता है. एक अन्य पौराणकि प्रसंग के अनुसार उद्धव जी ने राजा परीक्षति को कथा सुनाते हुए कहा था - ‘10 हजार हाथियों का बल रखनेवाला जरासंध किसी दूसरे अधिक बलवान महायोद्धा से भी नहीं हारेगा. विधाता ने जरासंध की मौत सोमवंश (कहीं-कहीं भरतवंश या चंद्रवंश का भी उल्लेख) के योद्धा पांडव भीमसेन के हाथों मल्लयुद्ध में ही सुनिश्चित कर रखी है.’
जैसे इसका ध्यान आने पर कृष्ण ने पांडवों से कहा - हंस, हिडिंबक, कंस व जरासंध के दूसरे सहायकों की मौत हो चुकी है. जरासंध अब अकेला है और उसे मारने का अब सबसे अच्छा मौका है. जरासंध पर हम हमला नहीं करेंगे, बल्किउसे द्वंद्व या मल्लयुद्ध के लिए आमंत्रित करेंगे. क्षात्न-धर्म में क्षित्रय को यदि कोई द्वंद्व या किसी भी दूसरे युद्ध के लिए ललकारे, तो उसे चुनौती स्वीकारनी पड़ती थी. फिर चाहे वह शस्त्नयुद्ध हो या कुश्ती. इसी का लाभ उठा कर श्रीकृष्ण व पांडवों ने युक्ति रची.
उधर, जरासंध के मगध देश में कई अपशकुन हुए,जिससे वह बड़ा उिद्वग्न था. पुरोहितों के कहने पर उसने कई अनुष्ठान कराये और व्रतादि भी रखे, पर उसकी बेचैनी दूर नहीं हुई. ऐसे में श्रीकृष्ण, भीम व अर्जुन ब्राह्मण के वेश में जरासंध के राजभवन पहुंच गये. वे निहत्थे थे. जरासंध ने उनका अतिथि-सत्कार किया.
इस स्वागत पर भीम व अर्जुन चुप रहे. तब श्रीकृष्ण ने कहा - मेरे दोनों साथियों का मौन व्रत है. आधी रात को व्रत खुलने के बाद ही वे बोलेंगे. विश्वास कर जरासंध उन्हें ब्राह्मण-कक्ष में ठहरा कर अपने महल चला गया. अतिथि-सत्कारी जरासंध आधी रात को अतिथियों के पास आया. जरासंध का माथा यह देख कर ठनका कि अतिथियों के हाथ पर एक निशान है, जो कि धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) के रगड़ खाने से ही पड़ता है. दूसरे चिह्नों से भी उसे पक्का विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मण नहीं, कोई और हैं.
तब आवेश में आकर जरासंध ने पूछा - तुम लोग कौन हो? तब तीनों ने कहा - हम तुम्हारे शत्नु हैं. जरासंध सहसा अपने शत्नुओं को सामने देख चौंक गया और बोला - ‘कृष्ण, तुम ग्वाले हो क्षित्रय नहीं, तो मैं तुमसे युद्ध नहीं कर सकता. अर्जुन अभी बालक है, उससे भी नहीं. हां, भीम के बल के बारे में खूब सुना है. उससे द्वंद्व युद्ध करने को तैयार हूं.’
प्रसंगवश उल्लेख्य है कि पाटलीपुत्न में गंगातट पर (जो आज बिहार के राजगीर में है) एक स्थान था बैकुंठपुर, जो आज अपने विकृत नाम बैकठपुर से जाना जाता है. वह क्षेत्न द्वापर युग में जरासंध के मगध देश में पड़ता था. जब जरासंध से मल्लयुद्ध होना तय हुआ, तो वासुदेव श्रीकृष्ण पांडव भीमसेन को लेकर इसी बैकुंठपुर पहुंचे थे. जरासंध बैकुंठवन स्थित एक शिवालय में प्रतिष्ठित चतुर्मुखी शिविलंग की विधिवत पूजा-अर्चना किया करता था. शिवकृपा उस पर बनी रहे, इसीलिए उसने भीमसेन से मल्लयुद्ध के लिए वही स्थान चुना.
नियत दिन भीमसेन व जरासंध में मल्लयुद्ध शुरू हो गया. 28 दिनों (कहीं-कहीं 13 दिनों का वर्णन) तक लगातार युद्ध चला. 29वें दिन जरासंध तो नहीं, पर भीम के हौसले पस्त होने लगे. श्रीकृष्ण ने भीम को इशारा किया - इसके शरीर को दो हिस्सों में तोड़ दो, भीम ने यही किया. पर जरासंध की देह फिर जुड़ जाती और वह उठ कर खड़ा हो जाता. भीम बार-बार जरासंध की देह को दो हिस्सों में तोड़ते, पर वह हर बार जुड़ जाती. हैरान-परेशान-पसीने से तर-बतर भीम ने केशव को देखा.
तब श्रीकृष्ण को लगा कि इसी तरह भीम व जरासंध में मल्लयुद्ध चलता रहा, तो धर्म की संस्थापना नहीं हो पायेगी और विधि का विधान गड़बड़ा जायेगा. कहते हैं, तब लीलाधर ने काल व मल्लयुद्ध को रोक दिया और अपने इष्ट सृष्टि के विलय-चक्र के प्रणोता, संहारक व अविनाशी शिव का ध्यान किया. शिव को याद दिलाया -‘पृथ्वी या मृत्युलोक में जो भी मानव तन में आया है, उसे एक दिन यहां सर्वस्व त्यागना पड़ता है. यदि जरासंध के साथ ऐसा नहीं हुआ, तो मृत्युलोक की परंपरा-मर्यादा टूट जायेगी. धर्म-स्थापना की कड़ी में जरासंध का वध जरूरी है, क्योंकि आनेवाले समय में सोमवंशी क्षित्रय भाइयों के दो समूहों पांडव व कौरवों में भीषण युद्ध महाभारत होगा. धर्म व अधर्म के इस प्रतीकात्मक महायुद्ध में सम्राट जरासंध जीवित रहा, तो कौरवों का साथ देगा. इस तरह धर्मानुगामी पांडव हार जायेंगे.’
श्रीकृष्ण के नीतिपूर्ण वचन सुन कर अविनाशी शिव बोले - ‘जरासंध मेरा परम भक्त है. परंतु यदि मेरा कोई भी भक्त धर्म संस्थापना की राह में आता है, तो उसे उसकी परिणति ङोलनी पड़ती है. हे लीलाधर, जरासंध से पार पाने की युक्ति शिवा (यानी पार्वती) ही बता सकती हैं, क्योंकि उन्होंने ही जरासंध की गर्भावस्था में रक्षा की और धरा पर आने के बाद उसे जरा नामक वनदेवी बन कर जीवनदान दिया.’
अब श्रीकृष्ण सीधे देवी पार्वती के पास पहुंचे. उनसे वस्तुस्थिति बताई, तो देवी ने बताया -‘ जरासंध की देह को दो हिस्सों में फाड़ कर परस्पर विपरीत दिशाओं में फेंका जायेगा, तभी उसका संहार होगा.’
अगले दिन मल्लयुद्ध में भीम को इशारा करते हुए श्रीकृष्ण ने एक तिनका उठाया और उसे बीच में से चीरा. फिर दोनों तिनकों को परस्पर विपरीत दिशाओं में फेंक दिया. इसे समझ कर भीम ने जरासंध की देह को बीच से फाड़ कर अलग किया. फिर शरीर के बायें व दायें हिस्से को परस्पर विपरीत दिशाओं में फेंक दिया. इस तरह लीलाधर के युक्तिपूर्ण छल से जरासंध मारा गया. फिर कृष्ण, भीम और अर्जुन ने सारे बंदी राजाओं को वहां से छुड़ाया. वे जरासंध के पुत्न सहदेव को मगध की राजगद्दी पर बिठा कर इंद्रप्रस्थ वापस लौटे. इस तरह पांडवों ने विजय प्राप्त की और सारे देश को महाराजा युधिष्ठिर की अधीनता में ले आये.?