रमेश द्विवेदी
आजकल देश में शिरडी के साईं बाबा को कथित रूप से भगवान जैसा माननेवाले उनके भक्तों और सनातन धर्म के आचार्यो-संतों के आचरण को लेकर भ्रामक स्थिति बनी है. सियासी हलकों से हाल में आयी कतिपय टिप्पणयिों और उन पर संत-महात्माओं की प्रतिक्रि याओं से स्थिति अिप्रय हुई है. यहां तक कि सांप्रदायिक सौहार्द के लिए देश- विदेश में माने जानेवाले शिरडी धाम के भक्तों को ‘साईंराम’ कहने से रोका जा रहा है. ऐसे में सनातम धर्म की मूल भावना और साईं बाबा की भिक्त से जुड़ी शंकाओं का निवारण जरूरी है. भगवान आद्य शंकराचार्य ने देश के चार कोनों पर चार आश्रमों या शंकर मठों की स्थापना करते हुए विचार किया था - स्व स्व राष्ट्र प्रतिष्ठित्यै संचार: सुविधियतां अर्थात, संतजन राष्ट्र निर्माण में सदा भ्रमणशील रहें, अपनी नैतिक समीक्षा करें एवं राष्ट्र की भी समीक्षा करते हुए धर्मोपदेश एवं सदाचरण से समाज का नैतिक स्खलन रोकने को सचेष्ट रहें. इसके अलावा 12 वर्षो पर होनेवाले महाकुंभ में एकजुट होकर शास्त्नीय चिंतन-मनन एवं मंथन से देश की समस्याओं का समाधान तलाशें. फिर कुंभ समाप्ति के बाद अपने मठों में वास करने के बजाय अपने-अपने क्षेत्नों में उन सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करें. यदि आज ऐसा नहीं हो पा रहा है, तो साधु-संतों को ही दोष देकर हमलोग अपने कर्तव्य से नहीं बच सकते. आखिर साधु-संत भी तो हमारे समाज से ही हैं. संत-बिरादरी में भी दोष-विकार दिखने लगा है, तो इसका जिम्मा कुछ हद तक समाज पर भी है. आचार्य शंकर की दृष्टि में राष्ट्र का नैतिक निर्माण दो ही ढंग से संभव है. एक तो आचार्यो के सदाचारपूर्वक दिये गये सदुपदेश से, दूसरा राजदंड से. अर्थात, सदुपदेश देने से पहले आचार्य को स्वयं ईमानदारी से सदाचारपूर्वक आध्यात्मिक जीवन जीना चाहिए. साथ ही राजदंड का विधान करनेवाले शासक-वर्ग को भी स्वयं पर आरोप लगने की स्थिति में ईमानदारी से राजदंड भोगने को तत्पर रहना चाहिए. यूं शासक व धर्माचार्य, दोनों को विशेष रूप से संयत व सदाचारी होने का संकल्प लेना होगा. तभी राष्ट्र कल्याण संभव है. स्वामी आदि शंकर - शंकराचार्य, श्रीमद्भगवान गोविंदपाद के शिष्य थे. वह दक्षिण भारत के केरल के चिदंबरम में एक नंबूदरी ब्राह्मण परिवार से थे. वह एक साथ ज्ञानी, पंडित, वाकपटु, शास्त्नर्थ-महारथी, कवि, कर्मठ योगी और निवृत्ति परायण थे. उन्होंने प्रस्थानत्नयी - 12 मुख्य उपनिषद्, गीता एवं ब्रह्मसूत्न पर वृहद भाष्य लिखे. संपूर्ण भारत में 10 मठ बनवाये, जिनमें चार आज भी सनातन गरिमा के साथ टिके हुए हैं. इन मठों को बनाने का उद्देश्य था, सनातन धर्म की वैदिक प्रणाली सुव्यविस्थत रहे और वेदांत-दर्शन का प्रचार-प्रसार होता रहे. आशय है, धर्म: धर्मेति रिक्षत:. जीवन-पथ को सुगम बनाने हेतु शास्त्नध्ययन आवश्यक है. शास्त्नों में वेद सर्वोपरि है. वेद के भी छह अंग बताये गये हैं : शिक्षा- नासिका, ज्योतिष-नेत्न, व्याकरण- मुख, निरु क्त-कर्ण, कल्प - हाथ और छंद - चरण. कल्प का मतलब है कर्म का ज्ञान, धार्मिक विधि-विधान व उत्सव की जानकारी, यज्ञादि व संस्कार कर्म की जानकारी. प्राच्य परंपरा में आज भी जगद्गुरु की तैयारी दुर्गम मार्ग से होकर गुजरती है, जिसमें सत्शास्त्न अध्ययन, यमादि, सांख्य, श्रुत आदि क्र म हैं. तदुपरांत विद्वज्जन एवं गुरु आदेश की अपेक्षा निहित है. ज्योतिष व द्वारकापुरी के मठाधीश जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती उसी कड़ी से आते हैं. वह सनातन धर्म के विधान से यूं ही राजदंड के धारक नहीं हैं. सनातन धर्म में साधु, संत, संन्यासी या वैरागी को कई जिटल से जिटलतम परीक्षा की कसौटियों यथा चार वेद, 18 पुराण व 108 उपनिषदों पर आधारित क्लिष्टतम शास्त्नर्थ में खरा उतरना पड़ता है. फिर मनसा, वाचा व कर्मणा पद्धतियों से उसके समग्र ज्ञान को सांसारिक आचरण की कसौटी पर कसा जाता है. तब जाकर वह संत या वैरागी, शंकरमठ या शंकर आश्रम का पीठाधीश बनाया जाता है. इतना ही नहीं, अगर स्वामी शंकराचार्य किसी से शास्त्नर्थ में हार जायें अथवा उनके आचरण में मलिनता आ जाये, तो उनका राजदंड छिन सकता है. मानव के व्यापक व दूरगामी हित में जिसने भी महती कार्य किया (चाहे वह संत-महंत हो अथवा फकीर या समाज उद्धारक, विज्ञानी, समाज सेवी), वे सभी हमारे लिए वंदनीय हैं. हां, विभूतिपाद से चमत्कृत हो किसी को प्रभु या ईश्वर मान लेना अनुचित है. विश्व के सभी धर्म न्यूनाधिक एकेश्वरवाद यानी एक ईश्वरवाद को किसी ना किसी रूप में मानते हैं. सूत्न है - जीव, जीव है और शिव तो शिव. मानव देह में आसुरी व दैवीय शिक्तयां विद्यमान हैं. देवासुर संग्राम होते रहते हैं, उद्देश्य होता है - संप्रसार एवं संकुचन. धर्म तो आत्म-विकास का सबको समान अवसर देता है. धर्म स्वतंत्न है, परंतु इसकी मूलशिक्त है, जिसके आगे मानव मात्न नतमस्तक है. जड़ विज्ञान भी परमाणु (यौगिक तत्व या पदार्थ का सबसे छोटा भाग, जिसके और टुकड़े ना हो सकें) के बाद ‘क्वार्क (परमाणु से भी सूक्ष्मतम कण)’ पर मौन हो जाता है. जहां तक शिरडी के साईं की बात है, तो वह फकीर थे. फकीर ने कहा - ‘सबका मालिक एक’ अर्थात् उन्होंने भी अपने आपको ईश्वर/अल्लाह का बंदा बताया. भक्तों के लिए उन्होंने कहा - ‘श्रद्धा व सबुरी, अर्थात सबके प्रति श्रद्धा एवं स्वयं में सब्र या धीरज या धैर्य को पहचानो. हमारे देश में पूजा व्यक्ति की नहीं, शिक्त व सिद्धांत की होती है. साईं भक्तों को चाहिए कि वे अपने आचरण में साईं के प्रति सच्ची श्रद्धा दिखायें. यह श्रद्धा एक के प्रति तभी सार्थक होगी, जब सबके प्रति श्रद्धाभाव होवे. किसी शब्द से मर्माहत हो गये, तो भला सबुरी कैसी? धैर्य से सुनें, गुनें एवं समङों. अखंड मंडलाकार में गुरु सत्ता एक ही है. अत: एक की अवमानना गुरु शिक्त की अवमानना होती है. शास्त्नों में विर्णत है, राजा एवं गुरु का निंदक नरकगामी होता है. राजा एवं जगद्गुरु का जीवन -दर्शन समिष्ट की मंगल कामना है. वहां व्यक्तिभाव का लोप हो जाता है. सिद्धांतत: जगद्गुरु ही क्यों, किसी की भी बातें समझ से परे हों, तो उससे शिष्टमंडल को स्पष्ट व्याख्यान का सविनय निवेदन करना चाहिए. संवाद ऐसा माध्यम है, जिससे बड़े से बड़ा वाद सुलझाया जा सकता है, यह तो मात्न धर्म सिद्धांत विवाद है.?

