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-मिनी चीन 'चायना टाउन' में नहीं रही वो रौनक
-भाषा, संस्कृति और परंपरा को बचाये रखने की चेष्टा, अपने वजूद बचाये रखने की चुनौती
-1962 में इंडो-चीन युद्ध के दौरान हुई जमकर अत्याचार, शुरू हुआ पलायन, सरकार ने हजारों लोगों को चीन भेज दिया
-चायना टाउन के हर घर का कम से कम एक व्यक्ति अब कनाडा में
राहुल मिश्रा, कोलकाता
भारत में चीनी समुदाय का एक छोटा सा समूह है, जो पूरी तरह भारतीय बन चुके हैं। यह भारत की विशाल जनसंख्या के सामने अत्यंत ही छोटा है। इस छोटे से समूह ने इस विशाल भारत के लोगों के दिल में जगह बनाया हो न हो पर ये हमारे 'पेट' और लाखों महिलाओं के 'चेहरे' पर पूरी तरह से बस गये हैैं। जहां एक तरह लोकप्रिय 'चीनी चाउ' नूडल्स और चाइनीज फास्ट फूड हर नुक्कड़ पर छोटी-बड़ी दुकानों में बड़े चाउ से खाये जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ लाखों शहरी महिलाओं के चेहरे की चमक के पीछे भी इस समुदाय की महिलाओं का हाथ रहता है, जिनका ब्यूटी पार्लर करीबन हर इलाके में मिल जाते हैं। भारत के अभिन्न अंग बन चुके इस समुदाय का एक बड़ा हिस्सा महानगर के टेंगरा इलाका स्थित 'चायना टाउन' में बसे हैं, लेकिन किसी जमाने में 'मिनी चीन' कहा जाने वाला यह 'चाइना टाउन' अब संक्रमण के गहरे दौर से गुजर रहा है। कोलकाता के पूर्वी छोर पर स्थित इस बस्ती में कभी हमेशा चहल-पहल बनी रहती थी। लेकिन हाल के वर्षों में खासकर युवाओं के रोजगार की तलाश में पश्चिमी देशों में पलायन की प्रक्रिया तेज हो गयी है। जिससे अब इसकी रौनक फीकी पडऩे लगी है। अब बचे-खुचे लोग भी बेहतर मौकों की तलाश में हैं। कोलकाता में चीनी समुदाय की जड़ें बहुत पुरानी हैं। सन् 1778 में ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में चीनियों का पहला जत्था कोलकाता से लगभग 65 किलोमीटर दूर डायमंड हार्बर के पार उतरा था और उस समय वारेन हेस्टिंग्स से उद्योग लगाने के लिए जमीन की मांग की गयी थी, जो उन्होंने उस समय बजबज इलाके के पास मुहैया करायी थी। वहां एक चीनी मिल की स्थापना की गयी और चीन से प्रवासी श्रमिकों लाया गया। उसके बाद रोजगार की तलाश में धीरे-धीरे और लोग कोलकाता आये और फिर वे यहीं के होकर रह गये। इनमें अधिकतर कलकत्ता पोर्ट पर काम करते थे और धीरे धीरे कोलकाता के विभिन्न इलाकों में रहने लगे, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा 'चायना टाउनÓ में बस गया। यहां आने वाले चीनी लोगों में दो तरह के समूह थे, जिनमें 'कैनटोनिसÓ व 'एथनिक हक्काÓ थे। कैनटोनिस मुख्यत: कुशल कारीगर थे और हक्का समुदाय के लोग चमड़े के जूता बनाने वाले व व्यापारी वर्ग के थे। चायना टाउन में रहने वाले अधिकतर लोग हक्का समुदाय के हैैं। किसी जमाने में यहां चीनियों की आबादी 50 हजार थी, लेकिन यह सिमट कर पांच हजार से भी कम हो गयी है।
चीन को सिर्फ एटलस में ही देखा
यहां के अधिकतर युवा दिखने में तो चीनी हैं पर यकीन मानिये तो इन्होंने चीन को सिर्फ एटलस में ही देखा है। युवती मारीया लीउ कहती हैं, 'अब तो इस मिनी चीन की रौनक लगभग उजड़ गयी है। मेरे दादा 60 के दशक में यहां आये थे और यहीं उन्होंने शादी की। मेरे पिता का जन्म यहीं हुआ था, वह अब नहीं रहें। घर में अभी मां, बड़ा भाई और चार बहनें हैैं। भाइया भी चाहता है विदेश जाने के लिए क्योंकि वहां जाने से अधिक रुपये कमा सकेगा। हम सभी ने चीन को सिर्फ एटलस में ही देखा है।Ó
चीन के प्रति अब भी है प्यार
कोलकाता में बसे इस समुदाय केलोगों के दिलों में अब भी प्यार है। उनका मानना है कि भारत और चीन के बीच बढ़ती मिठास ही उनके अच्छे भविष्य का रास्ता खोलेगी। लोग मानते हैं कि दोनों देशों के बीच पिछले कई महीने काफी तनाव भरे रहे हैं। इस तनाव को खत्म करने की जरूरत है। ये लोग मानते हैं कि अगर दोनों देश नजदीक आ जायें तो महाशक्ति बन सकते हैं। लेकिन पुराने अनुभव को देखते हुए काफी मेहनत करने की जरूरत है। मारीया कहती हैं यहां के युवा के दिल में चीन जाने की तमन्ना तो है, पर सिर्फ घूमने के लिए, जबकि रहना भारत में ही चाहते हैं।
युवाओं का विदेश पलायन
मारीया के मुताबिक अब चायना टाउन में लोग नहीं रहते। लगभग सभी युवा ही कनाडा, तायबान, अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों में चले गये हैैं। लगभग हर घर से एक या दो सदस्य आज उन देशों में काम कर रहे हैैं। दुख है कि यहां चीनियों के हितों की ओर न तो राज्य सरकार ने कोई ध्यान दिया और न ही चीन सरकार ने। वे विदेश जाकर अच्छा-खासा रुपया कमा रहे हैं। मारीया के कई रिश्तेदार भी वहीं हैं। चाइना टाउन के जो क्लब युवाओं से भरे रहते थे, वहां सन्नाटा पसरा है। अब या तो उम्रदराज लोग यहां बच गए हैं या फिर बच्चे। बीच की पूरी पीढ़ी गायब हो रही है।
पूरी तरह भारतीय रंग में रंग गये
चीनी मूल के लोग पूरी तरह भारतीय रंग में रच बस गए हैं। लेकिन अपनी मिट्टी के लिए अब भी उनका मन तड़पता है। यहां कई बुजुर्ग हैैं, जिन्होंने यहां चमड़े की टैनरी खोली थी। तब इतनी प्रतिद्वंद्विता नहीं थी बाजार में। लेकिन लगभग 10 साल पहले इस धंधे में पहले जैसी कमाई नहीं होने के कारण कितने लोगों ने टैनरी बेच दी। किसी ने रेस्तरां खोल लिया, तो कई विदेश चले गये।
भूल रहे हैं चीनी भाषा पढऩा और लिखना
एक बात पर चीनी समुदाय के सभी लोग सहमत हैं कि अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा को बचाए रखना जरूरी है। इसके बिना तो वजूद ही खत्म हो जायेगा।
जहां तक चीन की संस्कृति का सवाल है, हम यहां उसे किसी तरह जिंदा रखे हुए हैं। लेकिन युवकों के पलायन ने अब इसकी रौनक भी छीन ली है।Ó ये बांग्ला बोलते हैैं और चीनी पढऩा तक नहीं जानते। कोलकाता में पहले चीनी भाषा की पढ़ाई के लिए तीन स्कूल थे। उनमें से एक तो बंद हो चुका है और जो दो बचे हैं उनमें भी छात्रों की तादाद काफी कम है।
न ही चीनी रहे, न ही बन पाये भारतीय
उदारीकरण व भूमंडलीकरण के इस दौर में चीनी अर्थव्यवस्था में भी काफी खुलापन आया है। शायद यही सोचकर ली की इच्छा होती है चीन जाने की। जहां उनके दादा व पिता का जन्म हुआ था। वह कहते हैं, 'जाने का मन करता है लेकिन सोचता हूं कि क्यों न उसी पैसे से किसी पश्चिमी देश का रुख करूं! मेरी तरह बाकी युवा भी इसी ऊहापोह में फंसे हैं। वे न तो पूरी तरह चीनी बन पाये हैं और न ही भारतीय। वे लोग बांग्ला भी बोलते हैं और अंग्रेजी भी। लेकिन अपनी भाषा भूल गए हैं।Ó ली और उनके जैसे युवाओं से बातचीत के बाद यही लगता है भारत में बसे चीनी मूल के लोग और समाज गंभीर संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।
चीनियों के हितों की ओर न तो सरकार और न ही चीन सरकार
चीनियों का कहना है कि 1962 में चीन युद्ध के दौरान उन पर अत्याचार भी हुए। सरकार ने हजारों लोगों को चीन भेज दिया। उसके बाद ही चीनियों का पलायन शुरू हुआ और लोग कनाडा और अमेरिका जाने लगे। अब हर घर का कम से कम एक व्यक्ति कनाडा में है।
चीन से काफी उम्मीदें
राजनीतिक नजरिये से भी कोलकाता में रहने वाले चीनी समुदाय को चीनी सरकार से काफी उम्मीदें हैं। उनका कहना है कि अगर भारत चीन अपने विवादों को बैठकर निपटा ले तो इससे दोनों देशों का फायदा होगा।
वीजा को लेकर है खटास
इंडो चाइना एसोसिएशन के अध्यक्ष पॉल छंग कहते हैं, 'भारत चीनी नागरिकों को लंबी अवधि के वीजा को इनकार करता है और चीन कश्मीर के लोगों को अलग से वीजा दे रहा है। लेकिन ये छोटी समस्यायें हैं, जिनका समाधान निकाला जाना चाहिये।
चीनी शिक्षकों को वीजा देने में उदार नहीं है भारत
भारत में चीनी भाषा पढऩे की ललक बढ़ती जा रही है, पर भारत सरकार चीनी शिक्षकों को वीजा देने में उदार नहीं है। चीनी शिक्षकों को वीजा जारी करने की प्रक्रिया बेहद सख्त और लंबी है। यह कहना है चीन के एक शीर्ष राजनयिक का। कोलकाता में चीन के वाणिज्य महादूत माओ सिवेई ने कहा था कि भारत और चीन के बीच गहराते आर्थिक रिश्ते के कारण भारत में चीनी भाषा की मांग तेजी से बढ़ रही है, पर भारत में कोई चीनी शिक्षक चीनी पढ़ाने के लिए मौजूद नहीं है। इसकी वजह यह है कि यहां आने के लिए चीनी शिक्षकों को भारी मशक्कत करनी पड़ती है।
उन्होंने कहा कि असली समस्या यह है कि इन शिक्षकों को आसानी से भारतीय वीजा नहीं मिल पाता। ऐसा नहीं है कि भारत वीजा आवेदन खारिज कर देता है, पर वीजा जारी करने की प्रक्रिया इतनी लंबी, जटिल और उबाऊ है कि लोग थककर यह प्रयास छोड़ देते हैं।
राजनयिक ने कहा कि जब से दोनों मुल्कों के बीच आर्थिक संबंधों में तेजी आई है, तब से चीनी भाषा के प्रति भारतीयों की ललक बढ़ी है। अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं है, ऐसे में चीनी भाषा ही हमारे लिए संपर्क भाषा है। चीन में अंग्रेजी बोलने और समझने वालों की तादाद कम है।
उनका मानना है कि चीनी भाषा का कोई भी भारतीय शिक्षक इस भाषा के साथ भरपूर न्याय नहीं कर सकता, क्योंकि वर्तनी में चूक की गुंजाइश बनी रहती है।