-गरीब के लिए महंगा व मिलावटी है चिकित्सा
-सत्ता के कुछ ही दिनों मुख्यमंत्री ने देखा बदहाली का मंजर
राहुल मिश्रा, कोलकाता
गत कुछ दिनों में बंगाल ने देशभर
में खूब सुर्खियां बटोरी। राजनीति, दोषारोपण और बहस का बाजार भी गर्म रहा।
इसका पूरा श्रेय राज्य की बेहद बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था को जाता है, जिसका
शिकार सिर्फ आम गरीब जनता ही होती है। चिकित्सा के नाम पर जगह-जगह
पंूजीपतियों की दुकान लग जाने, बदहाल सरकारी अस्पताल व भ्रष्ट तंत्र के
कारण गरीबों के लिए इलाज नकली, मिलावटी और महंगा हो गया है। इन सबके बीच
बीमार मजबूर गरीब संघर्ष करते-करते दम तोड़ देता है, जिसे देख भले ही
हुक्मरानों को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर बीमारी को एहसास होता तो
शायद उसे खुद में अपराधबोध होता।
हुगली के किसान राजू नस्कर को टीबी से ग्रसित पिता बादल नस्कर की जान
नहीं बचा पाने का काफी अफसोस है। गत दिनों महानगर के एक सरकारी अस्पताल में
उन्होंने दम तोड़ दिया। अपनी लाचारी को बयां करते हुए राजू कहते हैैं कि
गांव के डाक्टर साहब ने पिताजी को पाइवेट नर्सिंग होम ले जाने की सलाह दी
थी, लेकिन रुपये न होने के कारण सरकारी अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा, जहां
भर्ती होने के बाद अच्छा भला व्यक्ति भी आखिर में दम तोड़ देता है। पिता
के इलाज व दवाइयों में हुई खर्च और अस्पतालों में दौड़धूप ने उनके पूरे
परिवार की कमर तोड़कर रख दी। अंत में उनके पास पिता के मृत शरीर को अस्पताल
से छुड़वाकर घर ले जाने तक को रुपया नहीं था। किसी तरह घर में बचा-खुचा
सामान बेचकर पिता के उनका अंतिम संस्कार किया। राजू की बातों से उसकी
लाचारी और व्यवस्था के खिलाफ काफी रोष देखने को मिला, जो सरकारी अस्पतालों
में आने वाले अधिकतर लोगों के भीतर देखने को मिलता है। सरकारी अस्पतालों की
बदइंतजामी व गैरजिम्मेदारी के चलते इसका आभास स्वयं मुख्यमंत्री व
स्वास्थ्य विभाग के प्रभारी ममता बनर्जी को भी अपने कुछ ही दिनों के
कार्यकाल में हो गया है। इनमें बीसी राय व वद्र्धमान अस्पताल में लगातार
शिशुओं की मौत, लालबाग अस्पताल में प्रसव के बाद मां व शिशु को तेजाब से
पोंछने पर शिशु की मौत, इमरजेंसी वार्ड में नसे में धुत्त डाक्टर की
तैनाती, मरीज के अंगुली का चूहे से कुतरना और संसाधन की कमी के कारण रोगी
को एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भेजने के कारण रास्ते में दम तोडऩे की जैसे
कई घटनाएं है।
निजी अस्पतालों की बाढ़ में ढहता सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था
प्रदेश
में 71 फीसदी लोगों के इलाज के लिए 9 मेडिकल कालेज, 15 जिला, 45 सब
डिवीजनल, 34 स्टेट जनरल, 33 सामान्य, 96 ग्र्रामीण अस्पताल हैैं, जबकि 253
बीपीएचसी, 924 प्राथमिक चिकित्सा केंद्र और 10356 उपकेंद्र समेत 11765
अस्पताल हैैं, जबकि प्राइवेट अस्पतालों व चिकित्सा केंद्रों की संख्या बाढ़
की तरह बढ़ती जा रही है। इनमें अधिकतर अस्पताल फाइव स्टार सुविधाओं से
युक्त होने के साथ ही आम आदमी की पहुंच से काफी दूर रहते है, यदि मजबूरन इन
अस्पतालों में किसी गरीब को इलाज करवाना पड़ जाए तो उसे एक जान बचाने के
लिए अपने परिवार के न जाने कितने लोगो के भविष्यों को बनियों के पास गिरवी
रखना पड़ता है। वहीं सरकारी अस्पतालों की हालत गरीबों से भी बदतर और दिनों
दिन खस्ता होती जा रही है।
घटिया व नकली दवाओं के गिरफ्त में गरीब
गांव-गांव
तक बेहतर स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के सरकारी दावों के बीच देश की
विभिन्न स्वास्थ्य केंद्रों से करोड़ो रूपये मूल्य की दवाएं घटिया पाई जा
रही हैैं। सरकारी अस्पतालो में एक्सपायर दवाओं का वितरण और अधिकारियों के
निरीक्षण के दौरान लाखों रुपये की दवाओं को जलाकर नष्ट करना तो आम बात है।
गरीब मरे या जीये सरकारी अस्पताल के डाक्टरों को इस बात से कोई मतलब नहीं।
मिलावटी खाद्य पदार्थों से घट रही उम्र
दवाओ
के साथ ही खाद्य पदार्थों और फलो में मिलावट का धंधा आज देश में जोर शोर
से चल रहा है। फलों को पकाने में उपयोग किये जा रहे घटिया केमिकल दूध में
डिटर्जेंट, यूरिया, सब्जियो रंगने में इस्तेमाल किये जा रहे घातक केमिकल
रंग और इन्हें जल्द से जल्द उगाने के लिये खाद के इस्तेमाल ने गरीब की औसत
आयु आज काफी घटा दी है। घी, दूध ऊंचे दाम चुकाने के बावजूद नकली होते हैं,
जिसमें पाए जाने वाले आक्सीटीसिन की वजह से लीवर कमजोर हो रहा है।
शर्मसार कर देने वाले कुछ आंकड़े
यूनिसेफ
की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर वर्ष गर्भावस्था तथा प्रसव की
जटिलताओं के कारण 67,000 महिलाओं की मौत हो जाती है। स्टेट आफ द वल्र्ड
मदर्स 2010Ó की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 74,000 मान्यता प्राप्त सामाजिक
स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (एक्रिडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) की ओर 21,066
आग्जिलरी नर्स मिडवाइफ्स (एएनएम) की कमी है। वहीं बंगाल में चिकित्सक व
नर्स समेत आवश्यक मानव संसाधन में करीब 15 हजार कर्मचारियों की कमी है।
सरकारी मानदंडो के अनुसार मैदानी इलाको में 1000 की आबादी पर एक स्वास्थ्य
कार्यकर्ता और 5000 की आबादी पर एक एएनएम होना चाहिये। हमारे देश में हर
साल पांच साल से कम उम्र के 19.5 करोड़ बच्चे मौत के मुंह में चले जाते
हैैं यानि हर दिन देश में 5000 बच्चे या प्रति 20 सेकेंड में एक बच्चे की
मौत होती है। जबकि बंगाल की हर 1,000 माताओं में से करीब 35 गरीब माताओं को
बच्चे को जनने के बाद उसकी मौत का दर्द सहना पड़ता है।
साभार ः दैनिक जागरण