आज भी सही मायने में गणतंत्र की सार्थकता से मीलों दूर हैं। तंत्र (सिस्टम) गण (जनता) के लिए स्थापित हुआ। पर, वह चंद हाथों की कठपुतली बन कर अंधेरे में गुम होती गई। अमीर तो पहले से ही फायदे में थे, लेकिन गरीब को कुछ न मिल सका। धनी और धनवान होते गए, गरीब और गरीब होते गए। यही वजह है कि आज भी काफी लोग एक जून की रोटी के लिए परेशान हैं। अशिक्षा, गरीबी, घर, कपड़े, रोजगार के लिए तरस रहे हैं। लोगों का ही विकास नहीं हुआ तो देश कहां से आगे बढ़ेगा। कुछ हद तक शिक्षित मध्यम वर्ग को कुछ लाभ मिला। यह दुर्भाग्यजनक है कि आज अंग्रेजी मीडियम से पढ़े-लिखे बच्चों को ही आगे बढ़ने का बेहतर मौका मिलता है, लेकिन जो अशिक्षित हैं उनके लिए क्या हो रहा है? सरकारी फाइलों में बहुत कुछ होता है, लेकिन तंत्र रूपी महाजाल से निकलते-निकलते रास्ते में ही दम तोड़ देता है। मैं अब 80 की उम्र पार कर चुकी हूं। सोचती हूं कि वर्तमान सरकार जो सोशलिस्ट मानी जा रही है, भोजन की कमी, भूमिहीनता, गरीबी जैसी समस्याओं के निदान में सफल नहीं हो सकी है। वन, नदी, झरना जैसे प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए बुनियादी सभ्य रवैया नहीं अपनाया जा रहा। अगर इन पर ठीक तरीके से ध्यान दिया जाए तो भारत प्रकृति से प्रेम करने वालों के लिए वास करने का सबसे बेहतर स्थान हो सकता है। परंतु, पंगु तंत्र में सब कुछ अपंग हो गया है। ऐसा नहीं हैं कि लोग अपने अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठा रहे
हैं, लेकिन वह भी मुठ्ठी भर लोग हैं, जो आंदोलन व प्रदर्शन के जरिए सिस्टम को बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
भूमिहीनता, गरीबी ने आज ऊंची इमारतों को जन्म दिया है। यहां तक की पहाड़ों के निचले भागों में भी बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हो रही हैं। राजनीति सेवा नहीं, बल्कि धनवान बनने का साधन मात्र रह गया है। इसका मकसद
सत्ता हथिया कर अपनी झोली भरना है। अब आम जनता भी यह जान चुकी है, जिनका तथाकथित राजनेता सत्ता हथियाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। जनता को पता है कि किसका विश्वास करना चाहिए और किसका नहीं। मैं बूढ़ी हो चुकी हूं। मैंने अपने जमाने में इतनी गंदी राजनीति नहीं देखी, लेकिन आज की परिस्थिति एक नदी की तरह हो गई है, जो सर्वनाश की तरफ बढ़ रही है। परिस्थिति में सुधार के लिए नि:स्वार्थ होना होगा। सही विचारधारा होनी चाहिए। जनता के हित में काम करना सीखना होगा। जब तक पुरानी क्षति की
भरपाई नहीं होगी, हालात नहीं सुधरेंगे। दीन-हीनों की सेवा के लिए नि:स्वार्थ भाव अत्यंत जरूरी है। समर्थ छात्र गरीब बच्चों की मदद करके इसकी शुरूआत कर सकते हैं। उन्हें शिक्षित कर सकते हैं। लोकतंत्र में
कार्य संस्कृति स्थापित करना सबसे जरूरी हो गया है। मैं गणतांत्रिक भारत की एक अनोखी समस्या बताना चाहती हूं। यह समस्या क्रिमिनल ट्राइब्स की है। अंग्रेजों ने एक विशेष जनजाति को यह नाम दिया
था, जिसे उन्होंने जन्म से ही अपराधी घोषित कर दिया था। यह जनजाति खेती-बारी नहीं करती थी। यह जंगल की जनजाति थी, जो पूरी तरह वन के उत्पादों पर निर्भर थी। इनमें पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में लोढ़ा
जनजाति को मैं जानती हूं, जो शिक्षा से वंचित थी। थोड़ी सी खेती लायक जमीन थी, लेकिन वे खेती करना नहीं जानते, सिर्फ वन व उसके संसाधन की सुरक्षा करना जानते थे, इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें जन्मजात अपराधी जनजाति घोषित कर रखा था, लेकिन वे लोग अपने ऊपर से इस छाप को दूर करना चाहते थे।
वे शिक्षित होने गए। 1980 की बात है, बीए पास महिला चुन्नी कोताल ने लोढ़ाओं के लड़के- लड़कियों को शिक्षित व जागरूक करने की कोशिश की थी। चुन्नी मेदिनीपुर स्थित विद्यासागर विश्वविद्यालय की छात्रा थी, लेकिन उसके आस पास के लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया। अंत में उसे आत्महत्या
करने को मजबूर कर दिया गया। इस घटना के विरोध में मैंने लड़ने की कोशिश की। इन कथित क्रिमिनल ट्राइब्स के लोगों का साथ देने वाला समाज में कोई नहीं है। बाद में मैंने पुरुलिया में इसी तरह की एक जनजाति खेरिया साबर के बारे में जाना। उनके साथ मैंने एक संगठन बनाया और उनके अधिकारों के
लिए वर्षो लड़ाई की। 1980 में बुधन साबर की नृशंस हत्या कर दी गई। मैंने कलकत्ता हाईकोर्ट में हत्यारों के खिलाफ मामला दायर किया। दो साल बाद मैंने मुकदमा जीता। वह दिन देश की सभी जनजाति के लिए महत्वपूर्ण था। इसके बाद महाराष्ट्र के साथ देशभर से विभिन्न जनजाति के लोग सरकार को धन्यवाद
कहने दिल्ली गए थे। उनमें मैं भी थी। आज क्रिमिनल ट्राइब्स के लोग शिक्षित होना चाहते हैं। शिक्षा ग्रहण करने जाते भी हैं। धीरे-धीरे अपनी अपराधी जनजाति की पहचान को खत्म कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर बंगाल के बाहर उच्च शिक्षा के लिए भी गए हैं। जनजातियों के लिए शिक्षा केंद्र खोलने का मेरा प्रयास शुरू में अधिक विस्तृत नहीं हो सका लेकिन अब यह जानकर अच्छा लगता है कि वे अपनी पहचान को बढ़ाना चाहते हैं। कुछ साबर बच्चे कालेजों में भी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, जो तीस साल पहले सोच से परे था। यदि हमारे देश का तंत्र ऐसे लोगों के प्रति संवेदनशील हुआ होता तो शायद कब की सभी समस्याओं का निदान हो गया होता।
(गणतंत्र दिवस पर राहुल मिश्रा के साथ महाश्वेता देवी की बातचीत )
साभार ः दैनिक जागरण