मोबाइल में छुपी थीं खुशियां 


राहुल मिश्र 

धर्मतल्ला में ट्राम लाइन के किनारे अंडा बेचनेवाला मो. हकीम जब पिछली बार गांव गया था तो बेटे दिलकैश को साथ ले आया. सोचा था महानगर में ही किसी स्कूल में एडमिशन करवा देंगे और फुरसत के वक्त में वह दुकान में भी हाथ बंटा देगा. हमेशा हंसने-खेलने वाले दिलकैश को न जाने क्या हो गया था. अब वह मायूस रहने लगा था. खुद को अकेला महसूस करने लगा था. आस-पास फुटपाथ पर रहनेवाले बच्चों के साथ खेलने, घुलने-मिलने में उसे डर महसूस होता था. एक बार तो उन लड़कों ने धक्के देकर भगा भी दिया था.
हकीम कहते हैं : मेरा लाडला बेटा मानो बीमार-सा हो गया था. मुङो लगा कि कितना बड़ा गुनाह कर दिया, जो उसे यहां ले अया. उसे जब भी पूछता, बाबू क्या हुआ, तो वह कुछ भी नहीं कहता. बस गुमसुम हो जाता. अपने कलेजे के टुकड़े को इस तरह देख कर मैं भी निराश रहने लगा था.                           एक दिन एक लड़का मोबाइल फोन लेकर आया. दिखा कर कहने लगा कि इसमें कैमरा, गाना और गेम सब है. दामी है, पर तुन्हें  सस्ते में दूंगा. मेरे पास उतने रुपये नहीं थे, लेकिन मेरे बच्चे को उस मोबाइल को बड़े गौर से निहारते देख मैंने मोबाइल खरीद लिया. मानो उसकी खुशी उसी मोबाइल में कैद थी. मोबाइल ने मेरा सुख-चैन सब लौटा दिया.
अब मेरा बेटा दिन भर मोबाइल से खेलता रहता है. दुकान पर आने वाले ग्राहकों का, ट्राम का, अजनबी लोगों का फोटो लेता रहता है. जब मन होता है अपनी अम्मी को फोन लगा देता है. यहां तक कि जो लड़के उसे मार कर भगा देते थे. गेम खेलने के लिए उसके साथी बन गये. उसे खुश देखता हूं तो मेरा भी दिल खुश रहता है. सच में किसकी खुशी कहां छुपी हुई है, यह जानने की जरूरत है और उसे ढूंढ़ निकालने की जरूरत है.


 
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