मोहल्ले के आतंकियों के लिए है कोई कानून
राहुल मिश्र, कोलकाता
मोहल्ले के मास्टर महाशय टय़ूशन पढ़ा कर लौट रहे थे. रात हो गयी थी. रास्ते में अचानक खेत से चीख सुनाई दी. पास गये तो देखा : तीन युवक एक के पेट में चाकू घोंपे जा रहे थे. सामने हत्या होते बुजुर्ग मास्टर भय से पसीना-पसीना हो गये. हत्यारों ने उन्हें देख लिया. वे पास आये और कहा : सर, आपने कुछ नहीं देखा. चुपचाप घर जायिये. अपने ही पढ़ाये छात्रों के हाथों कत्ल देखने के बाद बेचैनी में मास्टर की रात नींद हराम हो गयी. बच्चों के लाख पूछने पर भी कुछ न बताते. बार-बार चौंक उठते. सुबह हुई तो दरवाजे पर हत्यारे खड़े मिले. घर से निकलते, टय़ूशन-बाजार जाते हर वक्त हत्यारों की निगाहें डराती नजर आती. कभी ये खिड़की पर आ धमकते, तो कभी साइकिल से पीछा करके याद दिलाता कि आपने कुछ नहीं देखा. इसी तरह दहशत में दिन बीतते गये. एक बार दायित्व समझते हुए हिम्मत जुटा कर थाने पहुंचे, तो थाने के अफसर ने राजनीतिक हत्या के मामलों में न पड़ने की सलाह देते हुए घर भेज दिया. खबर हत्यारों तक पहुंच गयी. अंजाम के तौर पर बेटे को दरवाजे पर खून में लथपथ पाया और अगले दिन बेटी के चेहरे पर एसिड उड़ेल दिया गया.
यह कहानी सिर्फ मास्टर महाशय की नहीं, बल्कि लगभग हर मोहल्ले की है. देश के लगभग हर मोहल्ले में ऐसे आतंकी हैं, जो राजनीतिक पार्टियों व राजनेताओं के टुकड़ों पर पलते हैं. उन्हें फायदा पहुंचाते हैं. उनकी रैलियों में पहुंचते हैं और उनके लिए वोट जुटाते हैं. ये दूसरों की जमीन हड़प कर वहां पार्टी ऑफिस व क्लब बनाते हैं. चंदा, हफ्ता, रंगदारी व कमीशन वसूलते हैं. डराना-धमकाना इनका पेशा और महिलाओं को छेड़ना इनकी लत है. सब पर नेतागीरी का जुनून व शराब का नशा छाया रहता है. लोगों की निजी जिंदगी में झांकना और हर बात में टोकना अपना अधिकार समझते हैं. ये जवान होते हैं और काम पर नहीं जाते. ये हत्या भी कर दें, तो मामले को रफा-दफा करने में ही पुलिस भलाई समझती है. कहीं इनका रंग हरा, तो कहीं लाल है. कहीं ये हाथ के साथ तो कहीं हाथों में कमल लिये होते हैं. कहीं सलवा जुडूम के सिपाही तो कहीं हर्मद वाहिनी कहलाते हैं. इन्हें हथियार भी उपलब्ध हैं. समय, जगह, परिस्थिति के अनुसार इनका रंग बदलता है. इनका आतंक चुनावों के दौरान काफी बढ़ जाता है. इस दौरान ये राजनेताओं के भगवान बन जाते हैं. इन्हीं के बूते उन्हें चुनावी जंग जीतना होता है. ये ही तो शराब, रुपये व बाहु बल के दम पर एक-एक वोट दिलवाते हैं.
पश्चिम बंगाल में इन दिनों ये आतंकी हर गांव, मुहल्ले में जम कर आतंक फैला रहे हैं. यहां पंचायत चुनाव की घोषणा के बाद से हर रोज हत्या, हमले, आगजनी, तोड़फोड़, दंगे की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं. चुनाव में हिस्सा लेने के लिए नामांकन भरने नहीं दिया जा रहा. ताकत का प्रदर्शन हो रहा, जिससे गांवों का माहौल खौफजदा है. प्रशासन चुपचाप बैठा है. पत्रकारों पर भी हमले हो रहे हैं.
केंद्र सरकार राज्यों के मुख्यमंत्रियों को बुला कर बाहर से आने वाले आतंकियों व जंगलों में छिपे माओवादियों से निबटने के लिए कानून बनाने में पूरा दम-खम लगा रही है. एनसीटीसी को लेकर अजीब-अजीब तर्क व राजनीति हो रही है. पर मोहल्ले के इन आतंकियों से बचाने के लिए किसी सरकार के पास कोई कानून है क्या ?
नहीं है. कोई कानून इन आतंकियों से मुक्त नहीं कर सकता. क्योंकि इन्हें सिर्फ राजनेताओं का ही नहीं. हमारा भी समर्थन प्राप्त रहता है. हम घुट-घुट कर इन्हें पनपने देते हैं. चंदा, हफ्ता और वोट देकर उन्हें मजबूत बनाते हैं. सामूहिक विरोध व वोट ही वह हथियार है, जिससे इनका आतंक खत्म किया जा सकता है.