राहुल मिश्रा
बांग्लादेश में ब्लागरों के खिलाफ खूनी आक्रोश ने मुझे तसलीमा नसरीन
की याद दिला दी. यह बांग्लादेशी लेखिका आज शायद दिल्ली में शरण ले रखी है.
मैं उन्हें ठीक से नहीं जानता. बस बांग्लादेश का नाम आते ही उनका नाम मेरे
जेहन में अक्सर आता है. हां जानने की जिज्ञासा है. अपने समाज में महिलाओं
का शोषण, सामाजिक बुराइयों, धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ लिखने का हश्र सोच
कर आह निकल आयी. तसलीमा को बांग्लादेश ने देश से भगा दिया और वह भी भाग
आयीं. नहीं तो आज, कहीं किसी कब्र में लिखाई-पोताई कर रही होतीं. खैर, उस
समय कोलकाता के दफ्तर में हम तीन थे. अली साहब, सिंह जी और मैं. मेरा ज्ञान
और अनुभव दोनों वरिष्ठों से बहुत कम है, वे उम्र में मेरे दोगुना हैं. पर
हूं काफी संवेदनशील या फिर भावुक भी कह सकते हैं. खैर, काम के बाद हम फुरसत
में थे, तो मैंने कह दिया, धर्म को नहीं मानने या खिलाफ बोलने की सजा मौत.
बहुत मार्मिक व दर्दनाक है, निंदनीय भी. ऐसी बहसी हरकतों से मजहब और
अल्ला-इश्वर का वजूद और भी सवालों में घिर जाता है. मैंने सट से अली साहब
से कह दिया- सर, आपके कौम में मेरे जैसे नास्तिकों की भारी जरूरत है.
अल्लाह का डर दिखा कर बांधे गये कायदों के जंजीरों को तोड़ना होगा. आवाज को
दबाने वाले कायदेवाजों के खिलाफ जोर-शोर से बोलना होगा. नहीं तो आपका
समाज, आपके लोग अज्ञानता में घुट-घुट कर मरते-मारते मर जायेंगे. अली साहब
ने मेरा समर्थन तो किया, लेकिन ऐसा असंभव करार देते हुए खुद को मजबूर
बताया. दरअसल, उन्हें भी अपनी मौत दिखने लगी. झट से कह बैठे- मैं भी कुछ
बोलने जाऊं तो मुझे भी मार गिरायेंगे. मेरी बातों को लोग नहीं सुनेंगे, बस
मौलबी साहब अगर कह दिये, तो बस भेड़-बकरियों की तरह मेरी जान लेने के लिए
वे निकल पड़ेंगे. कम्युनिस्टों के गढ़ रहे बंगाल में ऐसा डर ! सही है,
तसलीमा को जब अपने ही देशवालों ने भगा दिया, तो उसने सोचा सेक्युलर
हिंदुस्तान में कम्युनिस्ट और उनके देश से सटा बंगाल से बेहतर और चैन की
जगह क्या हो सकती है. यहां शरण ली और मिल भी गया. लेकिन चैन से नहीं बैठने
वाली इस लेखिका के कारण पूरा राज्य बेचैन हो गया. यहां के मौलबी साहबों ने
तो हंगामा खड़ा कर दिया. अंत में धर्म को नहीं मानने वाले वामपंथियों के
मुख्यमंत्री बुद्धदेव बाबू ने फिर मेरे सिर न आना कह कर मुसीबत को विदा कर
दिया. इतने में सिंह जी कहने लगे, अरे, दूसरे के घर की को हम क्यों ढोये.
वो भी ऐसी गंदगी, जो मर्द ऐसे बदलती है, जैसे कोई कपड़े. ऐसे कचरे को रख कर
घर गंदा करना कहां की बुद्धिमानी है.
अली साहब बोले- अरे, वह हमारे यहां पनाह मांग रही थी, शरणार्थी को
सुरक्षा देना हमारा फर्ज है. खास कर जब कोई बुद्धिजीवी या लिखने-पढ़ने वाला
हो.
मेरी मां मुझे बहुत प्यार करती है. शायद उन्ही की वजह से
मेरे दिल में महिलाओं के प्रति एक शॉफ्ट कार्नर है. मैने कह दिया, भैया अगर
वह मर्द बदलती है, तो हर्ज क्या है ? अगर उसके समाज में मर्द वैध तरीके से
तीन बीवियां रख सकते हैं और उनके लिए वेश्यालय की सैर भी वैध है तो
महिलाओं को भी अपनी इच्छा पूरी करने का हक मिलना चाहिए. और वह तो एक
आंदोलनकारी है.
सिंहजी बोले- बदलती है ठीक, लेकिन उसे लिख कर लोगों को बता कर समाज को
बर्बाद करने की क्या जरूरत ? अगर उसके साथ बचपन में बलात्कार हुआ तो लोगों
क्यों बताते फिर रही है?
मैंने कहा- भैया ये लोग ईश्वर का
आशीर्वाद हैं, जो चीजों गौर से देखते हैं, और लिखते हैं. लेखक तो समाज का
आईना होता है. हर पहलु को सामने लाता है. हां, इससे उनको चोट जरूर पहुंचती
है, जो बदलाव नहीं चाहते, बदलाव से जिनका हित, जिनका अस्तित्व खतरे में पड़
सकता है. और वे इन आवाजों को कुचलने की हर कोशिश करेंगे.
सिर्फ बांग्लादेश नहीं, हमारे देश में भी आवाजों को कुचलने हर कोशिश
की जा रही है. चाहे वह कश्मीरी लड़कियों के बैंड के खिलाफ फतवा जारी करके
दबाना हो या फिर कोलकाता में ही सलमान रुश्दी और तसलीमा के आने पर पाबंदी
ही हो. पाकिस्तान की उस छोटी सी मलाला की साहस और उसके साथ जो भी हुआ, वह
आपको मौत के बाद की सजा के खौफ में बैठने या फिर चंद मौलवियों की बातों में
आकर टाल देने की इजाजत नहीं देता.