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बीकानेर में एल पी तेसीतोरी की समाधि |
-बीकानेर रियासत पर बिखरे हुए दुर्लभ शोध संग्रह को सहेजने की जरूरत
रमेश द्विवेदी
ज़रा सोचिए कि आज से 127 साल पहले सुदूर देश इटली में एक व्यक्ति को संस्कृत व हिंदी सीखते-पढ़ते हुए राजस्थान से इस क़दर लगाव हो जाता है कि नियति उसे उसकी मनपसंद जगह राजस्थान खींच लाती है और वहां रहते हुए महज साढ़े पांच साल के कार्यकाल में वह शख्स राजस्थानी भाषा-साहित्य-संस्कृति-इतिहास को इतना कुछ दे जाता है, जो एक परिपक्व व्यक्ति के लिए भी पूरे जीवन-काल में असंभव है. बात हो रही है महज 23 वर्ष की उम्र में इटली से राजस्थान आये लुइज पियो तेस्सीतोरी की, जिसे अगर पूरा भारत नहीं, तो कम से कम समूचा राजस्थान, ‘थार के इतालवी साधक’ के रूप में जानता-पहचानता है. यह बात पिछले दिनों दि एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता और राजस्थानी प्रचारिणी सभा की ओर से संयुक्त रूप से यहां आयोजित एल-पी तेस्सीतोरी व्याख्यानमाला के दौरान उभर कर सामने आयी. इस दौरान बीज भाषण देते हुए जनसत्ता, दिल्ली के संपादक ओम थानवी ने इतालवी विद्वान पर अपने अनौपचारिक अध्ययन के हवाले से जोर दिया कि राजस्थान के पश्चिमोत्तर कीबीकानेर रियासत में तेस्सीतोरी द्वारा गहन शोध के फलस्वरूप प्राचीन शिलालेखों व अन्य पुरातात्विक महत्व की चीजों जैसे प्राचीन शिलालेखों, सिक्के, मूर्तियों आदि पर आधारित ऐतिहासिक दस्तावेज संजो कर रखे गये होते, तो आज राजस्थानी लोक-संस्कृति का इतिहास ज्यादा प्रामाणिक व सीखने-समझने लायक होता. उन्होंने बताया कि पराधीन भारत में विख्यात भाषा विज्ञानी प्रोफेसर ग्रियर्सन की सिफारिश पर लंदन में भारत कार्यालय ने एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता के लिए तेस्सीतोरी को आमंत्रित किया था. आठ अप्रैल 1914 को तेस्सीतोरी बंबई में उतरे और उस देश पहुंचे, जो उनके सपनों में रचा-बसा था. वहां से कलकत्ता, फिर जोधपुर और अंतत: बीकानेर में मरते दम तक रहे. इटली के छोटे से शहर उदीने में 13 दिसंबर 1887 को जन्मे तेस्सीतोरी बार्डिक एंड हिस्टोरिकल सर्वे ऑफ राजपूताना के अधीक्षक के रूप में यहां आये, लेकिन बीकानेर में उनका मन ऐसा रमा कि वह वहीं के होकर रह गये. थार की विकट जलवायु के बावजूद तेस्सीतोरी का थार से ऐसा मोह हुआ कि वह पुरातात्विक सामग्री जुटाने के लिए बीहड़ों, धोरों में घूमते रहे. थार की डोर उन्हें बार-बार इटली से यहां खींच कर राजस्थान लाती रही.
तेस्सीतोरी को राजस्थानी भाषा व उनकी लिपियों के विश्लेषण, भारतीय कला, संस्कृति तथा पुरातत्व में विशेष योगदान के लिए याद किया जाता है. डॉ तेस्सीतोरी को बीकानेर की सरकार ने राजस्थानी भाषा व उनकी लिपियों का विश्लेषण करने के लिए आमंत्रित किया था. वह दिसंबर 1915 में बीकानेर आये. फिर बीकानेर रियासत के सैकड़ों गांवों में घूम कर लगभग 729 पुरालेखों का संग्रह किया. इसी तरह उन्होंने लगभग 981 मूर्तियां तथा पुरातात्विक महत्व की दूसरी चीजें खोजीं, इकट्ठा कीं. कहते हैं कि बीकानेर का विख्यात संग्रहालय उन्हीं की देन है. उन्होंने महज 24 साल की उम्र में तुलसी कृत रामचरितमानस पर पहले इतालवी शोधार्थी के रूप में शोध किया. विदेशी भाषाओं में उनकी स्वाभाविक रुचि थी और विश्वविद्यालय स्तर पर संस्कृत का अध्ययन करने के बाद वह फ्लोरेंस विश्वविद्यालय से संस्कृत स्नातक भी हुए. उन्होंने ‘रामचरित और रामायण’ विषय पर गहन शोध किया और डॉक्टरेट हुए.
उन्होंने हालकृत सतसई, नासकेतरी कथा व इंद्रिय पराजय शतकम तथा आजाद वक्त की कथा का इतालवी भाषा में अनुवाद किया. उनका निधन 32 साल की अल्पायु में ही 22 नवंबर 1919 को बीकानेर में हुआ. बीकानेर में तेस्सीतोरी के कब्रिस्तान को स्मृति-स्थल के रूप में विकसित किया गया है. जहां राजपूताना शैली की छतरी बनी हुई है. 1982 से वार्षिक तेस्सीतोरी स्मृति समारोह की शुरु आत हुई. बीकानेर के प्रसिद्ध अभिलेखागार में तेस्सीतोरी अभिलेख-कक्ष बना हुआ है, जिसमें तेस्सीतोरी से जुड़ी तमाम सामग्री का प्रदर्शन है.
मालूम रहे कि दिसंबर 2012 में राजस्थानी प्रचारिणी सभा और दि एशियाटिक सोसाइटी ने मिल कर एलपी तेस्सीतोरी की 125वीं जयंती मनाई थी.
साभार : प्रभात खबर