सुधा अरोड़ा

दिन , हफ्ते , महीने , साल .... लगभग पैंतीस सालों से वे खड़ी थीं - खिड़की के आयताकार फ्रेम के दो हिस्सों में बंटे समुद्र के निस्सीम विस्तार के सामने - ऐसे , जैसे समुद्र का हिस्सा हों
वे । हहराते - गहराते समुद्र की उफनती पछाड़ खाती फेनिल लहरों की गतिशीलता के बीच एकमात्र
शांत , स्थिर और निश्चल वस्तु की तरह वे मानो कैलेंडर में जड़े एक खूबसूरत लैंडस्केप का अभिन्न हिस्सा बन गयी थीं ।
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‘‘ आंटी , थोड़ी शक्कर चाहिए । ’’ दरवाजे की घंटी के बजने के साथ सात - आठ साल के दो बच्चों में से एक ने हाथ का खाली कटोरा आगे कर दिया ।
बच्चों की आंखो के चुम्बकीय आकर्षण से उन्होंने आगे बढ़कर खाली कटोरा लिया , खुद रसोई में जाकर उसे चीनी से भरा और लाकर उन्हें थमा दिया ।
‘‘ संभालना । ’’ उन्होंने हल्की सी मुस्कान के साथ एक का गाल थपथपाया और जिज्ञासु निगाहों से देखा । पूछा कुछ नहीं ।
‘‘वहां ।’’ बच्चे ने आंटी की मोहक मुस्कान में सवाल पढ़ पड़ोस के फ्लैट की ओर इशारा किया , जो किसी बड़ी कंपनी का गेस्ट हाउस था ,‘‘ वहां अब्भी आये हमलोग ! ‘ दुबाई ’ से .... ’’ विदेशी अन्दाज में ‘ आ ’ को खीचंते हुए बड़ी लड़की ने कहा ।

पीछे से नाम की पुकार सुनकर एक ने दूसरे को टहोका । लौटते बच्चों की खिलखिलाहट को वे एकटक निहारती रहीं । एक खिलखिलाहट पलटी -‘ थैंक्यू आंटी ’ । उन्होंने स्वीकृति में हाथ उठाया और बेमन से मुड़ गयीं खिड़की की ओर । उनके पीछे पीछे हवा में ‘थैक्यू आंटी’ के टुकडे़ तिर रहे थे ।
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तीस साल पहले समुद्र ऐसा मटमैला नहीं था । चढ़ती दुपहरी में वह आसमान के हल्के नीले रंग से कुछ ज्यादा नीलापन लिए दिखता - आसमानी नीले रंग से तीन शेड गहरा । लगता , जैसे चित्रकार ने समुद्र को आंकने के बाद उसी नीले रंग में सफेद मिलाकर ऊपर के आसमान पर रंगों की कूची फेर दी हो । आसमान और समुद्र को अलग करती बस एक गहरी नीली लकीर । डूबता सूरज जब उस नीली लकीर को छूने के लिए धीरे धीरे नीचे उतरता तो लाल गुलाबी रंगो का तूफान सा उमड़ता और वे सारे काम छोड़कर उठतीं और कूची लेकर उस उड़ते अबीर को कैनवस पर उतारती रहतीं - एक दिन , दो दिन , तीन दिन । तस्वीर पूरी होने पर खिड़की के बाहर की तस्वीर का अपनी तस्वीर से मिलान करतीं और अपनी उंगलियों पर रीझ जाती । उन्हे थाम लेते ऑफिस से लौटे साहब के मजबूत हाथ और उनकी उंगलियां पर होते साहब के नम होंठ ।
दस साल बाद एक दिन अचानक ,जब गर्मी की छुट्टियां खत्म होने पर , बच्चे वापस पंचगनी के हॉस्टल लौट गए , उन्हे समुद्र कुछ बदरंग सा नीला लगा जिसमे जगह जगह नीले रंग के धुंधलाए चकत्ते थे । खिड़की के बाहर दिखाई देता समुद्र पहले से भी ज्यादा विस्तारित था । वैसा ही अछोर विस्तार उन्हे अपने भीतर पसरता महसूस हुआ । उनका मन हुआ कि उस सपाट निर्जन असीम विस्तार पर घर लौटते हुए पक्षियों की एक कतार आंक दें जिनके उड़ने का अक्स समुद्र की लहरों पर पड़ता हो । उन्होंने पुराने सामान के जखीरे से कैनवस और कूची निकाली पर कैनवस सख्त और खुरदुरा हो चुका था और कूची के बाल सूखकर अकड़ गए थे । वे बार बार खिड़की के बाहर की तस्वीर को बदलने की कोशिश करतीं पर उस कोशिश को हर बार नाकाम करता हुआ समुद्र फिर समुद्र था - जिद्दी , भयावह और खिलंदड़ा ।

खिलंदड़े समुद्र के किनारे किनारे कुछ औरते प्रैम में बच्चों को घुमा रही थीं । एक युवा लड़की के कमर मे बंधे पट्टे के साथ बच्चे का कैरियर नत्थी था जिसमें बच्चा बंदरिए के बच्चे की तरह मां की छाती से चिपका था ।

‘‘ मुझे अपना बच्चा चाहिए ’’ , साहब की बांहो के घेरे को हथेलियो से कसते हुए उनके मुंह से कराह सा वाक्य फिसल पड़ा ।
साहब के हाथ झटके से अलग हुए और बाएं हाथ की तर्जनी को उठाकर उन्होने बरज दिया , ’’ फिर कभी मत कहना । ये तीनों तुम्हारे अपने नहीं है क्या ? ’’ साहब ने कार्निस पर रखी बच्चों की तस्वीर उठा ली । फ्रेम मे जडी हुई तीनो बच्चो की हंसी के साथ साहब की तर्जनी की हीरे की अंगूठी की चमक इतनी तेज़ थी कि वे कह नही र्पाइं कि उनका बचपन कहां देखा उन्होंने । वे तो जब ब्याह कर इस घर मे आई तो दस , आठ और छः साल के तीनो बेटों ने अपनी छोटी मां का स्वागत किया था और वे दहलीज लांघते ही एकाएक बड़ी हो गयी थी ।

वह अपने दसवें माले के फ्लैट की ऊंचाई से सबको तब तक देखती रहीं , जब तक समुद्र की पछाड़ खाती लहरें उफन उफन कर जमीन से एकाकार नही हो गयीं । सबकुछ गड्डमड्ड होकर धुंआ धुंआ सा धुंधला हो गया ।
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न जाने कब वह खिलंदड़ा समुद्र एकाकी और हताश रेगिस्तान में बदल गया । वे खिड़की पर खड़ी होतीं तो उन्हे लगता - उनकी आंखो के सामने हिलोरें लेता समुद्र नहीं , दूर दूर तक फैला खुश्क रेगिस्तान है । यहां तक कि वे अपनी पनियाई आंखो में रेत की किरकिरी महसूस करतीं वहां से हट जातीं ।
‘ तुम्हें डेज़र्ट फोबिया हो गया है । ’ साहब हंसते हुए कहते ,‘ इसका इलाज होना चाहिए । ’
साहब को अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ा और वह उनका अतीत बन गए । पीछे छोड़ गए - बेशुमार जायदाद और तीन जवान बेटे । उतने ही अचानक उन्होंने अपने को कोर्ट कचहरी के मुकदमों और कानूनी दांवपेचों से घिरा पाया ।

तीनों बेटों के घेरने पर उन्होंने कहा कि उन्हें साहब की जमा पूंजी , फार्म हाउस और बैक बैलेंस नहीं चाहिए , सिर्फ यह घर उनसे न छीना जाए । उन्हें लगा , उनके जीने के लिये यह रेगिस्तान बहुत जरूरी है ।
घर उन्हें मिला पर बच्चे छिन गए । तीनों बेटे अब विदेश में थे और जमीन जायदाद की देख रेख करने साल छमाही आ जाते थे पर आकर छोटी मां के दरवाजे पर दस्तक देना अब उनके लिये जरूरी नहीं रह गया था ।
उन्हें पता ही नहीं चला , कब वह धीरे धीरे खिड़की के चैकोर फ्रेम में जड़े लैंडस्केप का हिस्सा बन गयीं ।
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‘‘ आंटी , हमलोग आज चले जाएंगे - वापस दुबाई ’’ वैसे ही ‘ आ ’ को खींचते हुए बड़ी लड़की ने कहा । ’’ हमारे ग्रैंड पा ’ मतलब नाना हमें लेने आए हैं । चलिए हमारे साथ , उनसे मिलिए । ’’ बच्चों ने दोनो ओर से उनकी उंगलियां थामीं और उनके मना करने के बावजूद उन्हे गेस्ट हाउस की ओर ले चले । इन चार दिनों में बच्चे उनके इर्द गिर्द बने रहे थे ।

सोफे पर एक अधेड़ सज्जन बैठे अखबार पढ़ रहे थे । उन्हे देखते ही हड़बड़ाकर उठे और हाथ जोड़कर बोल पड़े , ‘ बच्चे आपकी बहुत तारीफ करते हैं - आंटी इतनी अच्छी पेन्टिंग बनाती हैं , आंटी की खिड़की से इतना अच्छा व्यू दिखता है . . . . ’’ बोलते बोलते वह रुके , चश्मा नाक पर दबाया और आंखे दो तीन बार झपकाकर बोले ‘‘ अगर मैं गलत नहीं तो .....आर यू ...छवि . . .?

छवि - छवि - छवि ..... जैसे किसी दुर्घटना में इंद्रियां संज्ञाहीन हो जाएं.........वे जहां थीं , वहां खड़ी जैसे सचमुच बुत बन गईं ।
‘‘ हां ... पर आप ... ? ’’ बोलते हुए उन्हें अपनी आवाज़ किसी कुंए के भीतर से उभरती लगी ।
‘‘ नही पहचाना न ? मैं ...महेश । कॉलेज में तुम्हारा मजनू नं. वन ! ’’ कहकर वे ठहाका मारकर हंस पड़े ,‘‘तुम भी अब नानी दादी बन गई होगी - पोते पोतियों वाली ...... अपने साहब से मिलवाओ ..... ’’
उन्होने आंखें झुकायीं और सिर हिला दिया - वे नहीं रहे ।
‘‘सॉरी , मुझे पता नही था ! ’’ उनके स्वर में क्षमायाचना थी ।
‘‘ चलती हूं ...’’ वे रुकी नहीं , घर की ओर मुड़ गयीं ।
पीछे से छोटे बच्चे ने उनका पल्लू थामा - ‘‘ आंटी...... आंटी ... ’’
वे मुड़ीं । बच्चे ने एक पल उनकी सूनी आंखों में झांका , फिर पुचकारता हुआ धीरे से बोला -
‘‘ आंटी , यू आर एन एंजेल ’’ ।
वे मुस्कुर्राईं , पसीजी हथेलियों से गाल थपथपाया , फिर घुटने मोड़कर नीचे बैठ गईं , उसका माथा चूमा - ‘ थैंक्यू ! ’’ और घर की ओर कदम बढ़ाए ।
कांपते हाथों से उन्होंने चाभी घुमायी । दरवाजा खुला । दीवारों पर लगी पेन्टिंग्स के कोनों पर लिखा उनका छोटा सा नाम वहां से निकलकर पूरे कमरे में फैल गया था । कमरे के बीचोबीच वह नाम जैसे उनकी प्रतीक्षा में बैठा था । वे हुलस कर उससे मिलीं और ढह गईं जैसे बरसों पहले बिछडे़ दोस्त से गले मिली हों ।

खिड़की के बाहर रेगिस्तान धीरे धीरे हिलोरें लेने लगा था ।

और फिर ...... न जाने कैसे खिड़की के बाहर हिलोरें लेता रेगिस्तान उमड़ते समुद्र की तरह बेरोकटोक कमरे में चला आया और सारे बांध तोड़कर उफनता हुआ उनकी आंखो के रास्ते बह निकला ।
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