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» फ़ाकिर साहब को हज़ारों बार सलाम-नमस्ते!
हम प्रवासियों पर फ़ाकिर का अंदाज-ए-बयां, बस क्या कहने !
कौन कहता है कि ग़ज़लें तो बस मेहदी हसन, गुलाम अली व जगजीत-चित्र सिंह की
ही सुनने में अच्छी लगती हैं. ग़ज़ल, नज़्म-ओ-मौसीक़ी की वो उम्दा विधा है, जो
पहले उसे अपनी आवाज़ देनेवाले को ज़िंदाबाद करती है. फिर अक्सरहां सामईन
(श्रोताओं) के दिलोदिमाग को इस कदर ङिांझोड़ती है कि वह मुकम्मल ग़ज़ल की हर
कड़ी को तलाशने लगता है. ग़ज़ल के समंदर में जब गोता लगाया, तो ये जाना-समझा
कि असल में ग़ज़ल गाकर कोई मशहूर नहीं होता, बल्कि ग़ज़ल उसे गानेवाले को मशहूर
कर देती है. ये हक़ीकत तभी से पुख्ता है, जब शायर सुदर्शन फ़ाकिर की इस ग़ज़ल
को राजेंद्र मेहता व नीना मेहता की युगल आवाज़ में सुना. और गांव-जवार की
सौंधी माटी से मजबूरन दूर होने की कसक से तड़प उठा.
एक प्यारा-सा गांव, जिसमें पीपल की छांव छांव में आशियां था, एक छोटा मकां था छोड़ कर गांव को, उस घनी छांव को शहर के हो गये हैं, भीड़ में खो गये हैं वो नदी का किनारा, जिसपे बचपन गुज़ारा वो लड़कपन दिवाना, रोज़ पनघट पे जाना फिर जब आयी जवानी, बन गये हम कहानी छोड़ कर गांव को, उस उस घनी छांव को शहर के हो गये हैं, भीड़ में खो गये हैं. कितने गहरे थे रिश्ते, लोग थे या फ़रिश्ते एक टुकड़ा ज़मी थी, अपनी जन्नत वहीं थी हाय ये बदनसीबी, नाम जिसका गरीबी छोड़ कर गांव को, उस घनी छांव को शहर के हो गये, भीड़ में खो गये हंै एक प्यारा-सा गांव, जिसमें पीपल की छांव... ये तो परदेश ठहरा, देश फिर देश ठहरा हादसों की ये बस्ती, कोई मेला न मस्ती क्या यहां ज़िंदगी है, हर कोई अजनबी है छोड़ कर गांव को, उस घनी छांव को शहर के हो गये हैं, भीड़ में खो गये हैं एक प्यारा-सा गांव, जिसमें पीपल की छांव,..
हम प्रवासियों पर किस कदर सटीक बैठती है ये ग़ज़ल, इसे सुनकर ही सहज अंदाज़ा
लगाया जा सकता है. ये ग़ज़ल भी मकबूलियत से बेफिक्र उसी शायर सुदर्शन फ़ाकिर
ने रची है, जिन्हें ‘वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी...’ और ‘ये दौलत
भी ले लो ये शोहरत भी ले लो..’ को लिखने का श्रेय है.
बेग़म अख़्तर के चहेते शायर थे फ़ाकिर
फाकिर यूं ही मलिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख्तर उर्फ अख्तरी बाई फैज़ाबादी के पसंदीदा
शायर नहीं थे. फाकिर की सबसे बड़ी खूबी थी कि वो बड़े सरल व सादा जज़्बात
कागज पर उतारते थे. उनकी ग़ज़लें इसलिए ज्यादा मकबूल हुईं, क्योंकि उनमें
उर्दू के भारी-भरकम अल्फाज़ नहीं हैं. जगजीत की तरह फाकिर भी मूलत: पंजाब से
थे. डीएवी कॉलेज, जालंधर से ही फ़ाकिर ने जगजीत के साथ एमए किया था. इन
दोनों की गाढ़ी दोस्ती तभी से रही. और ये सिलसिला 18 फरवरी 2008 को फ़ाकिर
के इंतकाल से थम गया.