बलात्कार तक ही शोषण और दर्द का अंत नहीं
वास्तव में उसकी ये बातें सिर्फ उसकी नहीं, उसके जैसी हर लडकी की वेदना है. बलात्कार तक ही उनके शोषण और दर्द का अंत नहीं होता, बल्कि यह एक प्रकार से उनके शोषण और दर्द की शुरुआत होती है. इसके बाद का वक्त उनके लिए मानसिक यातना के समान होता है. उनके साथ हुए अपराध की विस्तृत जानकारी और अन्य सरकारी औपचारिकताओं के नाम पर विशेष कर वे पुलिस की कार्रवाइयों से आहत महसूस करती हैं. इसी बच्ची का उदाहरण ले लें. पूर्वी दिल्ली में अपने 10 वर्षीय भाई के साथ पिता के लिये दवाइयां लेने जा रही इस 13 वर्षीय बच्ची को 8 लोगों ने अगवा कर अपने वहशीपन का शिकार बनाया. इसे इलाज के लिये एम्स में भर्ती किया गया था जहां अस्पताल अधिकारियों ने इसे जनरल वॉर्ड में रखा. पुलिस की पूछ्ताछ भी इसी कक्ष में सबके सामने की जाती रही. वॉर्ड के अन्य लोगों में इससे घटना के संबंध में जानने की उत्सुकता रहती थी. लोगों को अपनी आपबीती पता हुआ जानकर वह उनसे बचना चाहती थी. उसे डर होने लगा कि बाहर भी उससे लोग ऐसे ही सवाल पूछेंगे. अपने जानने वालों से मिलने में शर्मिंदगी के भय ने उसे ऐसा करने को मजबूर कर दिया. ऐसे में बलात्कार के बाद उसके पीडितों से हुए व्यवहार पर सवाल जरूर उठता है.
हालांकि यह कोई नया मामला नहीं है. कंट्रोवर्शियल रेप केस रुचिका गिरहोत्रा मामला कोई कैसे भूल सकता है. 14 साल की रुचिका ने बलात्कार के बाद की मानसिक प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी. ये कुछ ऐसे मामले हैं जो प्रकाश में आते हैं लेकिन अकेले ये ही नहीं हैं. ऐसे केस भरे पड़े हैं जहां बलात्कार पीड़िताएं बाद में लोगों, पुलिस और जानने वालों की अपने लिये अलग नजर बर्दाश्त नहीं कर पातीं और आत्महत्या कर लेती हैं. इसके लिये पुलिस और प्रशासन को सावधानी बरतने की जरूरत है.
यूं तो यहां प्रावधान है कि बलात्कार पीड़िता जब पुलिस में केस दर्ज करवाने आती है तो उसकी जांच महिला अधिकारी द्वारा की जाए, पीड़िता की मानसिक स्थिति के लिये उसे तत्काल एक काउंसलर उपलब्ध करवाया जाए आदि, उसकी मरजी के खिलाफ उसे मेडिकल जांच के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता लेकिन इन सबके बाद जो सबसे कठिन दौर होता है वह है पीड़ित द्वारा समाज का सामना करने में शर्मिंदगी महसूस करना जो आगे चलकर आत्महत्या का कारण बन जाता है. अत: नए सिरे से इस पर कानून और निर्देश बनाये जाने चाहिए. पीड़ित की पहचान गुप्त रखना सबसे प्रथम होना चाहिए. अस्पतालों में भी उन्हें इलाज और जांच के लिए अलग वार्ड मिलना चाहिए. कुछ माह पूर्व संसद में इस पर बहस के दौरान एक कांग्रेस नेता द्वारा पीड़िता का असली नाम बोले जाने पर उस वक्त खासा हंगामा हुआ था.
वह तो केवल एक पक्ष था पर मसला यह है कि बलात्कार के बाद पुलिस में एफआईआर दर्ज कराने से लेकर, डॉक्टरी जांच और कोर्ट तक अलग-अलग पड़ावों पर पीडिता को अपने साथ हुए हादसे को फिर से याद करने के दंश से गुजरना पड़ता है. ऐसे में अगर पूरे समाज को ही उसकी पहचान पता हो तो उसे हर नजर अपने लिये शक्की और सवालिया लगता है. इस तरह वह अपने साथ हुए हादसे को भूल नहीं पाती और बार-बार उससे रूबरू होना सह न सकने के कारण आखिरकार आत्महत्या को अपने लिये एक मात्र रास्ता मान लेती है. इस दिशा में पुलिस, अस्पताल और सरकारी औपचारिकताओं के ढांचों में परिवर्तन के साथ जांच अधिकारियों को इसकी सेंसिटिविटी का एहसास भी कराया जाना चाहिए क्योंकि कितने भी नियम-कानून बना लीजिए अंतत: काम तो उन्हें ही करना है. जब तक वे इसके भावनात्मक पक्ष को समझेंगे नहीं इसके पक्ष में वे चाहकर भी नहीं कर पाएंगे. अत: पीड़िता की काउंसिलिंग के साथ-साथ पुलिस और जांच अधिकारियों की भी काउंसिलिंग की जानी चाहिए.