राहुल मिश्र, कोलकाता
यह नजारा सियालदह-बजबज रूट के ब्रेस ब्रिज रेलवे स्टेशन का है. इसमें प्लेटफॉर्म पर एक नेत्रहीन गायक ढोल बजा कर अपने मधुर कंठ से लोक गीत सुना रहा है. सा
थ में उसकी पत्नी भी बैठी है. उसे घेर कर बैठे बच्चे या पास खड़े बड़ों को शायद ही गंवई बांग्ला में उस गीत के बोल समझ में आ रहे हों. लेकिन गायक का भाव उन्हें समझ आ रहा था. गीत में जीवन व संसार के कष्टों का जिक्र करते हुए गायक ईश्वर से कुछ पूछ रहा था. इत्मिनान से गीत सुन रहे ये लोग यात्री नहीं थे, बल्कि पास की बस्ती के वाशिंदे थे. शायद यही वजह थी कि कई गीतों के बाद भी नेत्रहीन गायक के गमछे में मुश्किल से दो-तीन सिक्के ही गिरे थे. जी हां, वहां का प्लेटफॉर्म दूसरे स्टेशनों के प्लेटफॉर्म से अलग दिखता है. वहां यात्री कम नजर आते हैं, जबकि पास की बस्ती के लोग अधिक दिखते हैं. वहां बुजुर्ग आराम फरमाते, बच्चे खेलते-मंडराते, मर्द तास खेलने में और महिलाएं बातों में मशगूल दिखती हैं. उनकी बस्ती प्लेटफॉर्म से ही नजर आती है. वहां बिजली-पानी का बंदोबस्त नहीं है. एक दूसरे से लगभग चिपकी सैकड़ों झोपड़ियां हैं, जहां से शायद हवा को भी गुजरने में मशक्कत करनी पड़ती हो. वहां गरमी में दम घुटने जैसी स्थिति और बारिश में कीचड़ जमना तय है. हालांकि, बस्ती में एक-दो झोपड़ियां अपने आकार व ऊपर लगे सोलर लाइट के प्लेट से अपनी हैसियत बता देती हैं, लेकिन अधिकतर झोपड़ियां छोटी हैं. उसमें रहनेवाले अधिक हैं और जगह कम. यहां छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई, हो-हल्ला और नशे में ऊंची आवाज में दहाड़ने का नजारा आम है. ऐसे में तनाव और घुटन के माहौल से राहत के लिए प्लेटफॉर्म उनका सहारा है. प्लेटफॉर्म पर बिजली भी है और हवा भी. खाली जगह भी है और साफ सुथरी पक्की जमीन भी. तरह-तरह के लोग और गतिविधियां भी. यहां की चहल-पहल में अपनी तंग जिंदगी से जहां उनका ध्यान हटा रहता है, वहीं कभी-कभी जम कर मनोरंजन भी हो जाता है. यह प्लेटफॉर्म उनके लिए यकीनन सुकून का पक्का ठिकाना है.

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