देश प्रेम और देश-भक्ति से ओत-प्रोत
भावनाओं को सुन्दर शब्दों में पिरोकर जन-जन तक पहुँचाने वाले कवि प्रदीप का
जन्म 6 फरवरी 1915 को उज्जैन के बङनगढ नामक कस्बे में हुआ था। पिता का नाम
नारायण भट्ट था। प्रदीप जी उदीच्य ब्राह्मण थे। प्रदीप जी की शुरुआती
शिक्षा इंदौर के शिवाजी राव हाईस्कूल में हुई, जहाँ वे सातवीं कक्षा तक
पढे। इसके बाद की शिक्षा इलाहाबाद के दारागंज हाईस्कूल में संपन्न हुई।
इण्टरमिडीयेट की परिक्षा पूरी की। दारागंज उन दिनों सादित्य का गढ हुआ करता
था। वर्ष 1933 से 1935 तक का इलाहाबाद का काल प्रदीप जी के लिए साहित्यिक
दृष्टीकोंण से बहुत अच्छा रहा। लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री
हासिल की। प्रदीप जी का विवाह भद्रा बेन के साथ हुआ था। प्रदीप का वास्तविक
नाम रामचन्द्र नारायण दिवेदी था, किन्तु एक बार हिमाशु राय ने कहा कि ये
रेलगाङी जैसा लम्बा नाम ठीक नही है, तभी से उन्होने अपना नाम प्रदीप रख
लिया।
प्रदीप नाम के कारण उनके जीवन का एक रोचक
प्रसंग है, उन दिनों बम्बई में कलाकार प्रदीप कुमार भी प्रसिद्ध हो रहे थे
तो, अक्सर गलती से डाकिया कवि प्रदीप की चिठ्ठी उनके पते पर डाल देता था।
डाकिया सही पते पर पत्र दे इस वजह से उन्होने प्रदीप के पहले कवि शब्द जोङ
दिया और यहीं से कवि प्रदीप के नाम से प्रख्यात हुए।
जिस समय कवि प्रदीप की प्रतिभा उत्तरोत्तर
मुखर हो रही थी, तब उन्हे तत्कालीन कवि सम्राट पं. गया प्रसाद शुक्ल का
आशिर्वाद प्राप्त हुआ। प्रदीप जी भी उनके सनेही मंडल के अभिन्न अंग बन गये।
प्रदीप जी का जीवन बहुरंगी, संर्घषभरा, रोचक तथा प्रेरणा दायक रहा।
माता-पिता उन्हे शिक्षक बनाना चाहते थे किन्तु तकदीर में तो कुछ और ही लिखा
था। बम्बई की एक छोटी सी कवि गोष्ठी ने उन्हे सिनेजगत का गीतकार बना दिया।
उनकी पहली फिल्म थी कंगन जो हिट रही। उनके द्वारा बंधन फिल्म में रचित
गीत, ‘चल चल रे नौजवान’ राष्ट्रीय गीत बन गया। सिंध और पंजाब की विधान सभा
ने इस गीत को राष्ट्रीय गीत की मान्यता दी और ये गीत विधान सभा में गाया
जाने लगा। बलराज साहनी उस समय लंदन में थे, उन्होने इस गीत को लंदन
बी.बी.सी. से प्रसारित कर दिया। अहमदाबाद में महादेव भाई ने इसकी तुलना
उपनिषद् के मंत्र ‘चरैवेति-चरैवेति’ से की। जब भी ये गीत सिनेमा घर में
बजता लोग वन्स मोर-वन्स मोर कहते थे और ये गीत फिर से दिखाना पङता था। उनका
फिल्मी जीवन बाम्बे टॉकिज से शुरू हुआ था, जिसके संस्थापक हिमाशु राय थे।
यहीं से प्रदीप जी को बहुत यश मिला।
कवि प्रदीप गाँधी विचारधारा के कवि थे।
प्रदीप जी ने जीवन मूल्यों की कीमत पर धन-दौलत को कभी महत्व नही दिया। कठोर
संघर्षों के बावजूद उनके निवास स्थान ‘पंचामृत’ पर सोने के कंगुरे भले ही न
मिलें परन्तु वैश्विक ख्याति का कलश जरूर दिखेगा। प्रदीप जी के लिखे गीत
भारत में ही नही वरन अफ्रिका, यूरोप, और अमेरिका में भी सुने जाते हैं। पं.
प्रदीप जी ने कमर्शियल लाइन में रहते हुए, कभी भी अपने गीतों से कोई
समझौता नही किया। उन्होने कभी भी कोई अश्लील या हल्के गीत न गाये और न
लिखे। प्रदीप जी को अनेकों सम्मान से सम्मानित किया गया है। 1961 में संगीत
नाटक अकादमी द्वारा महत्वपूर्ण गीतकार घोषित किया गया। ये पुरस्कार उन्हे
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रदान किया गया था। किसी गीतकार को
राष्ट्रपति द्वारा इस तरह से सम्मान सिर्फ प्रदीप जी को ही मिला है। 1998
में दादा साहेब पुरस्कार से सम्मानित किये गये। मजरूह सुल्तानपुरी के बाद
ये दूसरे गीतकार हैं जिन्हे ये पुरस्कार मिला है।
प्रदीप जी स्वतंत्रता के आन्दोलन में बढ-चढ कर हिस्सा लेते थे। एकबार
स्वतंत्रता के आन्दोलन में उनका पैर फ्रैक्चर हो गया था और कई दिनों तक
अस्पताल में रहना पङा। प्रदीप जी अंग्रेजों के अनाचार-अत्याचार से दुखी थे।
उनका मानना था कि यदि आपस में हम लोगों में ईर्ष्या-द्वेश न होता तो हम
गुलाम न होते। परम देशभक्त आजाद की शहादत पर कवि प्रदीप का मन करुणा से भर
गया था और उन्होने अपने अंर्तमन से एक गीत रच डाला। वो गीत है-
वह इस घर का एक दिया था,
विधी ने अनल स्फुलिंगों से उसके जीवन का वसन सिया था
जिसने अनल लेखनी से अपनी गीता का लिखा प्रक्कथन
जिसने जीवन भर ज्वालाओं के पथ पर ही किया पर्यटन
जिसे साध थी दलितों की झोपङियों को आबाद करुं मैं
आज वही परिचय- विहीन सा पूर्ण कर गया अन्नत के शरण।
विधी ने अनल स्फुलिंगों से उसके जीवन का वसन सिया था
जिसने अनल लेखनी से अपनी गीता का लिखा प्रक्कथन
जिसने जीवन भर ज्वालाओं के पथ पर ही किया पर्यटन
जिसे साध थी दलितों की झोपङियों को आबाद करुं मैं
आज वही परिचय- विहीन सा पूर्ण कर गया अन्नत के शरण।
1962 में चीन से युद्ध के पश्चात पूरा देश आहत था। इसी परिपेक्ष्य में प्रदीप जी ने एक गीत लिखा था, जिसने उनको अमर बना दिया।
ऐ मेरे वतन के लोगों, तुम खूब लगाओ नारा
यह शुभ दिन है हम सबका, लहरा दो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर, वीरों ने हैं प्राण गँवाये,
यह शुभ दिन है हम सबका, लहरा दो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर, वीरों ने हैं प्राण गँवाये,
उन्होने आर्य समाज के संस्थापक दयानंद
सरस्वती के सम्मान में भी अमर कहानी लिखी, जिसका ऑडियो ऋषी गाथा के नाम से
जारी किया गया है। सादा जीवन उच्च विचार के धनि प्रदीप जी की मृत्यु कैंसर
के कारण 11 दिसम्बर 1998 को हुई थी।
प्रदीप जी ने देशवासियों को स्वतंत्रता
प्राप्त करने के लिए आह्वान किया। उन्होने फिल्मी गीत जरूर लिखे लेकिन
उसमें देशप्रेम की अजस्रधारा को प्रवाहित करने में कामयाब रहे। साहित्य
समिक्षा के मान दण्डों के आधार पर कवि प्रदीप एक उच्च कोटी के साहित्यकार
हैं। प्रदीप जी राष्ट्रीय चेतना के प्रतिनिधी कवियों की अग्रिम पंक्ति में
अपना स्थान रखते हैं। भाषा की दृष्टी से कवि प्रदीप का स्थान अन्य गीतकारों
से श्रेष्ठ है। समाज की बिगङती दशा को देखकर उनकी अंतरआत्मा ईश्वर से कहती
है कि,
देख तेरे संसार की हालत क्या होगई भगवान कितना बदल गया इंसान।
यर्थात में आज चहुँओर यही हालात हैं। समाजिकता की भावना से ओतप्रोत होकर विश्वबंधुत्व की भावना में उन्होने लिखा था कि,
इन्सान से इन्सान का हो भाई चारा, यही पैगाम हमारा
संसार में गूँजे समता का इकतारा, यही हैगाम हमारा।
संसार में गूँजे समता का इकतारा, यही हैगाम हमारा।
-अनिता शर्मा