झाबुआ के आदिवासी अंचल का गाय गौरी उत्सव
भारत रस्मो-रिवाज और अनूठी प्रथाओं का देश है। यहाँ भाँति-भाँति की परंपराएँ हैं, जिनकी शुरुआत तो आस्था से होती है, लेकिन अंतत: वे अंधविश्वास में परिणित हो जाती हैं। आस्था और अंधविश्वास की अपनी इस कड़ी में मैं आपको रूबरू करा रहा हूं मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ की अनूठी प्रथा गाय गौरी से।
यह उत्सव दीवाली के अगले दिन गोवर्धन (पड़वा) के दिन मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही आदिवासी अपने गाय-बैलों को नहला-धुलाकर उन पर रंगीन छापे लगाकर, उनके सींगों पर कलगी बाँधते हैं। फिर गाँव में स्थित गोवर्धन मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। पूजा के बाद गाँववासी मंदिर की पाँच परिक्रमा लगाते हैं।
परिक्रमा के दौरान गाँवभर की गायें परिक्रमा की अगवानी करती हैं। गाँव की महिलाएँ और बुजुर्ग ढोल-मंजीरे की थाप पर अष्ट छाप कवियों के पद गाते हुए परिक्रमा करती हैं। ये नजारा बेहद सुंदर लगता है, लेकिन तभी शुरू हो जाता है गाय गौरी का वह रूप जिसे देखकर अच्छे से अच्छा व्यक्ति काँप जाता है।
जी हाँ, गोमाता को मनाने के लिए आदिवासी अपनी गाय और सैकड़ों अन्य गायों के खुरों के नीचे लेटता है। चौंकिए नहीं, दीवाली के दूसरे दिन झाबुआ में गाय गौरी उत्सव कुछ इसी तरह मनाया जाता है। परिक्रमाओं के दौरान यहाँ के आदिवासी गोमाता का आशीर्वाद पाने की लालसा में कई बार इन जानवरों के सामने लेटते हैं और जानवरों का पूरा रेला इनके ऊपर से गुजर जाता है।
ये आदिवासी अपने परिवार की खुशहाली के लिए गाय गौरी से मन्नत माँगते हैं। मन्नत के लिए वे इस खतरनाक रस्म को निभाते हैं। इस रस्म को निभाने से पहले वे दिनभर उपवास रखते हैं। उसके बाद मंदिर की परिक्रमा करते हुए जानवरों के रेले के सामने लेट जाते हैं।
इस संबंध में जब गाँव के बुजुर्ग भूरा से बात की गई तो उन्होंने बताया हम गाय माता से माफी और मन्नत दोनों ही माँगते हैं। वे पिछले कई सालों से इस रस्म को निभा रहे हैं और हर बार उन्हें चोटें भी आती हैं।
झाबुआ के आदिवासी अंचल का गाय गौरी उत्सव
जहाँ गाय के खुरों तले कुचले जाते हैं लोग
भारत रस्मो-रिवाज और अनूठी प्रथाओं का देश है। यहाँ भाँति-भाँति की परंपराएँ हैं, जिनकी शुरुआत तो आस्था से होती है, लेकिन अंतत: वे अंधविश्वास में परिणित हो जाती हैं। आस्था और अंधविश्वास की अपनी इस कड़ी में मैं आपको रूबरू करा रहा हूं मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ की अनूठी प्रथा गाय गौरी से।
यह उत्सव दीवाली के अगले दिन गोवर्धन (पड़वा) के दिन मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही आदिवासी अपने गाय-बैलों को नहला-धुलाकर उन पर रंगीन छापे लगाकर, उनके सींगों पर कलगी बाँधते हैं। फिर गाँव में स्थित गोवर्धन मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। पूजा के बाद गाँववासी मंदिर की पाँच परिक्रमा लगाते हैं।
परिक्रमा के दौरान गाँवभर की गायें परिक्रमा की अगवानी करती हैं। गाँव की महिलाएँ और बुजुर्ग ढोल-मंजीरे की थाप पर अष्ट छाप कवियों के पद गाते हुए परिक्रमा करती हैं। ये नजारा बेहद सुंदर लगता है, लेकिन तभी शुरू हो जाता है गाय गौरी का वह रूप जिसे देखकर अच्छे से अच्छा व्यक्ति काँप जाता है।
जी हाँ, गोमाता को मनाने के लिए आदिवासी अपनी गाय और सैकड़ों अन्य गायों के खुरों के नीचे लेटता है। चौंकिए नहीं, दीवाली के दूसरे दिन झाबुआ में गाय गौरी उत्सव कुछ इसी तरह मनाया जाता है। परिक्रमाओं के दौरान यहाँ के आदिवासी गोमाता का आशीर्वाद पाने की लालसा में कई बार इन जानवरों के सामने लेटते हैं और जानवरों का पूरा रेला इनके ऊपर से गुजर जाता है।
ये आदिवासी अपने परिवार की खुशहाली के लिए गाय गौरी से मन्नत माँगते हैं। मन्नत के लिए वे इस खतरनाक रस्म को निभाते हैं। इस रस्म को निभाने से पहले वे दिनभर उपवास रखते हैं। उसके बाद मंदिर की परिक्रमा करते हुए जानवरों के रेले के सामने लेट जाते हैं।
इस संबंध में जब गाँव के बुजुर्ग भूरा से बात की गई तो उन्होंने बताया हम गाय माता से माफी और मन्नत दोनों ही माँगते हैं। वे पिछले कई सालों से इस रस्म को निभा रहे हैं और हर बार उन्हें चोटें भी आती हैं।
झाबुआ के आदिवासी अंचल का गाय गौरी उत्सव
जहाँ गाय के खुरों तले कुचले जाते हैं लोग
भारत रस्मो-रिवाज और अनूठी प्रथाओं का देश है। यहाँ भाँति-भाँति की परंपराएँ हैं, जिनकी शुरुआत तो आस्था से होती है, लेकिन अंतत: वे अंधविश्वास में परिणित हो जाती हैं। आस्था और अंधविश्वास की अपनी इस कड़ी में मैं आपको रूबरू करा रहा हूं मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ की अनूठी प्रथा गाय गौरी से।
यह उत्सव दीवाली के अगले दिन गोवर्धन (पड़वा) के दिन मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही आदिवासी अपने गाय-बैलों को नहला-धुलाकर उन पर रंगीन छापे लगाकर, उनके सींगों पर कलगी बाँधते हैं। फिर गाँव में स्थित गोवर्धन मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। पूजा के बाद गाँववासी मंदिर की पाँच परिक्रमा लगाते हैं।
परिक्रमा के दौरान गाँवभर की गायें परिक्रमा की अगवानी करती हैं। गाँव की महिलाएँ और बुजुर्ग ढोल-मंजीरे की थाप पर अष्ट छाप कवियों के पद गाते हुए परिक्रमा करती हैं। ये नजारा बेहद सुंदर लगता है, लेकिन तभी शुरू हो जाता है गाय गौरी का वह रूप जिसे देखकर अच्छे से अच्छा व्यक्ति काँप जाता है।
जी हाँ, गोमाता को मनाने के लिए आदिवासी अपनी गाय और सैकड़ों अन्य गायों के खुरों के नीचे लेटता है। चौंकिए नहीं, दीवाली के दूसरे दिन झाबुआ में गाय गौरी उत्सव कुछ इसी तरह मनाया जाता है। परिक्रमाओं के दौरान यहाँ के आदिवासी गोमाता का आशीर्वाद पाने की लालसा में कई बार इन जानवरों के सामने लेटते हैं और जानवरों का पूरा रेला इनके ऊपर से गुजर जाता है।
ये आदिवासी अपने परिवार की खुशहाली के लिए गाय गौरी से मन्नत माँगते हैं। मन्नत के लिए वे इस खतरनाक रस्म को निभाते हैं। इस रस्म को निभाने से पहले वे दिनभर उपवास रखते हैं। उसके बाद मंदिर की परिक्रमा करते हुए जानवरों के रेले के सामने लेट जाते हैं।
इस संबंध में जब गाँव के बुजुर्ग भूरा से बात की गई तो उन्होंने बताया हम गाय माता से माफी और मन्नत दोनों ही माँगते हैं। वे पिछले कई सालों से इस रस्म को निभा रहे हैं और हर बार उन्हें चोटें भी आती हैं।
courtesy _ rajiv uppal:
भारत रस्मो-रिवाज और अनूठी प्रथाओं का देश है। यहाँ भाँति-भाँति की परंपराएँ हैं, जिनकी शुरुआत तो आस्था से होती है, लेकिन अंतत: वे अंधविश्वास में परिणित हो जाती हैं। आस्था और अंधविश्वास की अपनी इस कड़ी में मैं आपको रूबरू करा रहा हूं मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ की अनूठी प्रथा गाय गौरी से।
यह उत्सव दीवाली के अगले दिन गोवर्धन (पड़वा) के दिन मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही आदिवासी अपने गाय-बैलों को नहला-धुलाकर उन पर रंगीन छापे लगाकर, उनके सींगों पर कलगी बाँधते हैं। फिर गाँव में स्थित गोवर्धन मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। पूजा के बाद गाँववासी मंदिर की पाँच परिक्रमा लगाते हैं।
परिक्रमा के दौरान गाँवभर की गायें परिक्रमा की अगवानी करती हैं। गाँव की महिलाएँ और बुजुर्ग ढोल-मंजीरे की थाप पर अष्ट छाप कवियों के पद गाते हुए परिक्रमा करती हैं। ये नजारा बेहद सुंदर लगता है, लेकिन तभी शुरू हो जाता है गाय गौरी का वह रूप जिसे देखकर अच्छे से अच्छा व्यक्ति काँप जाता है।
जी हाँ, गोमाता को मनाने के लिए आदिवासी अपनी गाय और सैकड़ों अन्य गायों के खुरों के नीचे लेटता है। चौंकिए नहीं, दीवाली के दूसरे दिन झाबुआ में गाय गौरी उत्सव कुछ इसी तरह मनाया जाता है। परिक्रमाओं के दौरान यहाँ के आदिवासी गोमाता का आशीर्वाद पाने की लालसा में कई बार इन जानवरों के सामने लेटते हैं और जानवरों का पूरा रेला इनके ऊपर से गुजर जाता है।
ये आदिवासी अपने परिवार की खुशहाली के लिए गाय गौरी से मन्नत माँगते हैं। मन्नत के लिए वे इस खतरनाक रस्म को निभाते हैं। इस रस्म को निभाने से पहले वे दिनभर उपवास रखते हैं। उसके बाद मंदिर की परिक्रमा करते हुए जानवरों के रेले के सामने लेट जाते हैं।
इस संबंध में जब गाँव के बुजुर्ग भूरा से बात की गई तो उन्होंने बताया हम गाय माता से माफी और मन्नत दोनों ही माँगते हैं। वे पिछले कई सालों से इस रस्म को निभा रहे हैं और हर बार उन्हें चोटें भी आती हैं।
झाबुआ के आदिवासी अंचल का गाय गौरी उत्सव
जहाँ गाय के खुरों तले कुचले जाते हैं लोग
भारत रस्मो-रिवाज और अनूठी प्रथाओं का देश है। यहाँ भाँति-भाँति की परंपराएँ हैं, जिनकी शुरुआत तो आस्था से होती है, लेकिन अंतत: वे अंधविश्वास में परिणित हो जाती हैं। आस्था और अंधविश्वास की अपनी इस कड़ी में मैं आपको रूबरू करा रहा हूं मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ की अनूठी प्रथा गाय गौरी से।
यह उत्सव दीवाली के अगले दिन गोवर्धन (पड़वा) के दिन मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही आदिवासी अपने गाय-बैलों को नहला-धुलाकर उन पर रंगीन छापे लगाकर, उनके सींगों पर कलगी बाँधते हैं। फिर गाँव में स्थित गोवर्धन मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। पूजा के बाद गाँववासी मंदिर की पाँच परिक्रमा लगाते हैं।
परिक्रमा के दौरान गाँवभर की गायें परिक्रमा की अगवानी करती हैं। गाँव की महिलाएँ और बुजुर्ग ढोल-मंजीरे की थाप पर अष्ट छाप कवियों के पद गाते हुए परिक्रमा करती हैं। ये नजारा बेहद सुंदर लगता है, लेकिन तभी शुरू हो जाता है गाय गौरी का वह रूप जिसे देखकर अच्छे से अच्छा व्यक्ति काँप जाता है।
जी हाँ, गोमाता को मनाने के लिए आदिवासी अपनी गाय और सैकड़ों अन्य गायों के खुरों के नीचे लेटता है। चौंकिए नहीं, दीवाली के दूसरे दिन झाबुआ में गाय गौरी उत्सव कुछ इसी तरह मनाया जाता है। परिक्रमाओं के दौरान यहाँ के आदिवासी गोमाता का आशीर्वाद पाने की लालसा में कई बार इन जानवरों के सामने लेटते हैं और जानवरों का पूरा रेला इनके ऊपर से गुजर जाता है।
ये आदिवासी अपने परिवार की खुशहाली के लिए गाय गौरी से मन्नत माँगते हैं। मन्नत के लिए वे इस खतरनाक रस्म को निभाते हैं। इस रस्म को निभाने से पहले वे दिनभर उपवास रखते हैं। उसके बाद मंदिर की परिक्रमा करते हुए जानवरों के रेले के सामने लेट जाते हैं।
इस संबंध में जब गाँव के बुजुर्ग भूरा से बात की गई तो उन्होंने बताया हम गाय माता से माफी और मन्नत दोनों ही माँगते हैं। वे पिछले कई सालों से इस रस्म को निभा रहे हैं और हर बार उन्हें चोटें भी आती हैं।
झाबुआ के आदिवासी अंचल का गाय गौरी उत्सव
जहाँ गाय के खुरों तले कुचले जाते हैं लोग
भारत रस्मो-रिवाज और अनूठी प्रथाओं का देश है। यहाँ भाँति-भाँति की परंपराएँ हैं, जिनकी शुरुआत तो आस्था से होती है, लेकिन अंतत: वे अंधविश्वास में परिणित हो जाती हैं। आस्था और अंधविश्वास की अपनी इस कड़ी में मैं आपको रूबरू करा रहा हूं मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ की अनूठी प्रथा गाय गौरी से।
यह उत्सव दीवाली के अगले दिन गोवर्धन (पड़वा) के दिन मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही आदिवासी अपने गाय-बैलों को नहला-धुलाकर उन पर रंगीन छापे लगाकर, उनके सींगों पर कलगी बाँधते हैं। फिर गाँव में स्थित गोवर्धन मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। पूजा के बाद गाँववासी मंदिर की पाँच परिक्रमा लगाते हैं।
परिक्रमा के दौरान गाँवभर की गायें परिक्रमा की अगवानी करती हैं। गाँव की महिलाएँ और बुजुर्ग ढोल-मंजीरे की थाप पर अष्ट छाप कवियों के पद गाते हुए परिक्रमा करती हैं। ये नजारा बेहद सुंदर लगता है, लेकिन तभी शुरू हो जाता है गाय गौरी का वह रूप जिसे देखकर अच्छे से अच्छा व्यक्ति काँप जाता है।
जी हाँ, गोमाता को मनाने के लिए आदिवासी अपनी गाय और सैकड़ों अन्य गायों के खुरों के नीचे लेटता है। चौंकिए नहीं, दीवाली के दूसरे दिन झाबुआ में गाय गौरी उत्सव कुछ इसी तरह मनाया जाता है। परिक्रमाओं के दौरान यहाँ के आदिवासी गोमाता का आशीर्वाद पाने की लालसा में कई बार इन जानवरों के सामने लेटते हैं और जानवरों का पूरा रेला इनके ऊपर से गुजर जाता है।
ये आदिवासी अपने परिवार की खुशहाली के लिए गाय गौरी से मन्नत माँगते हैं। मन्नत के लिए वे इस खतरनाक रस्म को निभाते हैं। इस रस्म को निभाने से पहले वे दिनभर उपवास रखते हैं। उसके बाद मंदिर की परिक्रमा करते हुए जानवरों के रेले के सामने लेट जाते हैं।
इस संबंध में जब गाँव के बुजुर्ग भूरा से बात की गई तो उन्होंने बताया हम गाय माता से माफी और मन्नत दोनों ही माँगते हैं। वे पिछले कई सालों से इस रस्म को निभा रहे हैं और हर बार उन्हें चोटें भी आती हैं।
courtesy _ rajiv uppal: