2012 में लोकसभा से पारित और फिर राज्यसभा से कैबिनेट को इस पर दुबारा विचार के लिए लौटा दिए गए विवाह कानून संशोधन विधेयक 2010 को लाने न लाने पर पक्ष-पिपक्ष में न सिर्फ कैबिनेट सदस्यों में मतभेद है बल्कि जनता की राय भी अलग-अलग है. महिला संगठन जहां इसे महिलाओं के हक में संशोधित करने की मांग कर रहे हैं वहीं कई लोगों का मानना है कि यह विधेयक महिला हितों की रक्षा में जितना कारगर होगा उससे ज्यादा महिलाओं द्वारा इसका दुरुपयोग किए जाने की संभावना है. इनकी राय में ये विधेयक घर तोड़ने का काम करेंगे. इससे आज जो तलाक के मामले पति-पत्नी में आपसी मनमुटाव और असहमति के कारण आते हैं वो हो सकता है संपत्ति पाने के मकसद से आने लगें.


विवाह कानून संशोधन विधेयक 2010
विवाह कानून संशोधन विधेयक 2010 को हिंदू विवाह एक्ट, 1955 तथा विशेष विवाह एक्ट, 1954 में संशोधन के लिये लाये जाने का प्रस्ताव है. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 एवं विशेष विवाह अधिनियम, 1954 भारत में विवाह संस्था की परंपरागत मान्यता को कानूनी हक देने के मकसद से बनाया गया था. इसका मुख्य उद्देश्य था भारत में विवाह के नाम पर कम उम्र में शादियां (बाल विवाह), सती प्रथा, पति की प्रताड़ना के बावजूद स्त्री का शादी के बंधन में बंधे रहने की मजबूरी या स्त्री के बदचलन होने या अन्य कारणों से अगर पति-पत्नी मजबूरी में साथ रहें तो उन्हें तलाक के द्वारा अलग होने की कानूनी मान्यता प्रदान करना आदि. आजादी के बाद भारत में बहुप्रचलित बाल विवाह को रोकने का भी यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था. बाल विवाह को रोकने के लिए कानूनन लड़कियों की शादी की उम्र 15 और लड़कों की शादी की उम्र 18 कर दी गई जो बाद में क्रमश: 18 और 21 कर दी गई. इससे कम उम्र में शादी कानूनन अपराध माना गया. ऐसे ही पति-पत्नी के साथ रहने की विपरीत परिस्थियों में तलाक का प्रावधान किया गया जिसकी मूल धारणा थी कि किसी रिश्ते को मजबूरी में जिंदगी भर निभाने की बजाय पति-पत्नी का संबंध अत्यंत कष्टकारी होने जाने के कारण मानवीय आधार पर इससे मुक्त होने का अधिकार होना चाहिए. हालांकि इस कानून में ऐसे प्रावधान रखे गए कि ये तलाक हर छोटे झगड़े के लिये घर तोड़ने का कारण न बनें और अत्यंत विकट परिस्थितियों में ही वे तलाक द्वारा अलग हों. इसलिए तलाक की प्रक्रिया के लिये यह शर्त रखी गई कि सामान्य हालातों में पति-पत्नी कम-से-कम 3 साल तक अलग रहे हों तभी इसे असामान्य स्थिति मानते हुए तलाक पर विचार किया जाएगा. इसके अलावे उनके बीच सुलह की संभावना देखने के लिए उन्हें 6 महीनों का वक्त दिया जाता है जिस बीच अदालत उन्हें साथ बिठाकर उनके बीच अगर गलतफहमियां या अन्य कारण हों तो बातचीत के द्वारा इसका हल निकालने की कोशिश करती है. इसने कई तलाक के मामलों में पति-पत्नी के बीच सुलह भी करवाई. पर अब जिस संशोधन के लिये विवाह कानून संशोधन विधेयक 2010 आया है उसके अनुसार कई बार घरेलू हिंसा या अन्य परिस्थियों में पत्नी के लिए पति के साथ रहना या पत्नी पक्ष की किसी अमान्य परिस्थिति के द्वारा पति के लिये पत्नी के साथ रहना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता है. ऐसे में तलाक में सुलह की कोशिशें या तलाक में लगने वाला समय उनके लिये मानवीय आधार पर शोषण के समान है. अत: ऐसे मामलों में दोनों पक्षों की सहमति से बिना देरी तलाक का प्रावधान होना चाहिए. इसी संशोधन के लिए विवाह कानून संशोधन विधेयक 2010 लाया गया.

क्या हैं मतभेद के कारण?
महिला संगठनों का कहना है कि सिर्फ जल्दी तलाक करवाना महिलाओं के लिये काफी नहीं है. क्योंकि ज्यादातर मामलों में पति पक्ष द्वारा पीड़ित होने के बावजूद अपनी आर्थिक सुरक्षा का कोई साधन नहीं होने के कारण पत्नी तलाक नहीं लेना चाहती, ऐसे में पति पक्ष द्वारा पत्नी की मजबूरी का फायदा उठाया जाता है उस पर और ज्यादतियां की जाती हैं. अगर यह कानून बन भी गया तो भी आसार कम है कि आम स्त्रियां जिनका पूरा आर्थिक ढांचा उनके पति पर ही निर्भर होता है, वे तलाक लेना चाहेंगी. इस तरह स्थिति बदतर ही होगी, सुधरेगी नहीं.
अत: उनकी मांग है कि इस विधेयक में न सिर्फ बिना देरी तलाक का प्रावधान लाया जाय बल्कि पति की पैतृक संपत्ति में आधा हिस्सा दिया जाए और अगर बच्चे भी स्त्री के ही पास हैं तो आधी से अधिक संपत्ति में उसका हिस्सा होना चाहिए. 2012 में यह विधेयक लोकसभा से पास होकर राज्यसभा में पारित होने के लिए गया पर वहां इस पर मतभेद होने के कारण इसे कैबिनेट को दुबारा विचार के लिये भेज दिया गया. इसी पर विचार के लिए 1 मई को कैबिनेट की बैठक होनी थी जिसमें कैबिनेट सदस्यों में इस पर मतभेद होने के कारण कोई आम राय नहीं बन सकी. कैबिनेट ही नहीं इसे लेकर परिवार एवं स्वास्थ्य कल्याण कार्यकर्ताओं तथा आम जनता की भी राय भिन्न हैं. कुछ इसे स्त्रियों का हक मानते हैं और कुछ के अनुसार इससे स्त्रियों द्वारा संपत्ति के लिये शादी के नाजायज इस्तेमाल की संभावना बढ़ जाएगी. इस तरह न सिर्फ पति बल्कि उसका पूरा परिवार प्रभावित होगा जो नहीं होना चाहिए. कैबिनेट सदस्यों का मानना है इस तरह मां-बाप जीते जी अपनी संपत्ति बेटे के नाम करने से डरेंगे.

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भारत में स्त्रियों का संपत्ति पर अधिकार कितना है?
मामला नाजुक है. वैवाहिक संस्था में अपनी आस्था को भारत के आम जन कभी भी कानूनी बंधन से बांधने के पक्ष में नहीं होते. यहां तो सवाल फिर भी संपत्ति की हिस्सेदारी का है, मां-बाप भी नहीं, ससुराल पक्ष की संपत्ति में हिस्सेदारी का. दोनों पक्षों की बातें अपनी-अपनी जगह कुछ हद तक सही, कुछ हद तक गलत मानी जा सकती हैं. भारत में अगर स्त्रियों के घरेलू हिंसा सहने के कारण देखें तो मुख्यत: स्त्री की आर्थिक अक्षमता ही होती है. आज भी शादी स्त्री की पहली प्राथमिकता मानी जाती है. हालात सुधरे जरूर हैं और मेट्रो सिटीज में लड़कियां शादी के बाद भी नौकरी कर रही हैं पर यह आज भी ससुराल पक्ष ही तय करता है कि लडकी नौकरी करेगी कि नहीं. अगर वे बहू की नौकरी के लिए मान भी जाएं तो इसमें स्त्री की आर्थिक सुरक्षा का जज्बा कहीं नहीं होता. हां, एकल परिवार में जरूर युवा जोड़े मिलकर अपने भविष्य के लिये योजनाएं बनाते हैं जिनमें पति-पत्नी दोनों अपने पैसों को भविष्य निधि की तरह देखते हैं और योजनाएं बनाते हैं जिसमें स्त्री की भी बड़ी पोजीशन और बैंक बैलेंस हो सकता है. पर ऐसा बहुत कम है.
2005 से पहले माँ-बाप की संपत्ति में भी बेटियों का कोई हक नहीं होता था. हालांकि 2005 में हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अंतर्गत अब माँ-बाप की संपत्ति पर बेटियों का भी कानूनन हक है पर कितने ऐसे घर हैं जहां अपने इस हक का बेटियां लाभ ले रही हैं? बेटियों के लिए समाज की नजर में सकारात्मक बदलाव जरूर आया है. आज बेटों के साथ बेटियों को भी माँ-बाप उसी प्राथमिकता के साथ पढ़ाते जरूर हैं पर अधिकांशतः यह सोचकर कि पढ़ा-लिखा अफसर दामाद अनपढ़ लडकी को नहीं मिलेगा. इस तरह लड़कियां नौकरी भी करती हैं पर जब तक कि एक अच्छा लडका शादी के लिए न मिल जाए. दहेज विरोधी कानून है पर आज भी अच्छे दामाद के लिए वे लाखों दहेज देने को तैयार हैं. अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिये इससे ज्यादा उनकी सोच जाती ही नहीं. शादी कर आज भी वे बेटी की जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं. भाई की सोच में आज भी बहन की जायदाद उसकी ससुराल में है. वह भाइयों के बीच बांटी जाने वाली संपत्ति में बहन को हिस्सेदारी देकर एक और टुकड़ा नहीं गंवाना चाहता. इसके लिए भी उन्हें कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती है. पर तब तक वे जाएं तो जाएं कहां? अपनी आर्थिक जरूरतों को कैसे पूरा करें?

बेजा इस्तेमाल रोकने के लिए हो कड़े दंड का प्रावधान
इस पर गहराई से विचार करने की जरूरत है. हां, यह संभावना हो सकती है कि कुछ स्त्रियां संपत्ति के लिये इसका बेजा इस्तेमाल करने की कोशिश करें. इस तरह तलाक के मामले बढ़ भी सकते हैं पर ऐसा भी तो हो सकता है कि इस प्रावधान के साथ जो घरेलू हिंसा के मामले हैं, वह कम हो जाएं. घरेलू हिंसा कानूनन अपराध होने के बाद भी अब तक रुक नहीं पा रही है क्योंकि स्त्रियां इसे सहती हैं. किसी भी हाल में उनकी नजर में पति सुरक्षा का मानक होता है. इसमें सबसे ज्यादा आर्थिक सुरक्षा का डर होता है. पति भी इसे पत्नी की कमजोरी मानता है और उसे कभी अपनी गलती का एहसास ही नहीं होता. अगर कहीं उसे अपनी बदसलूकी का एहसास होता भी है तो यह सोच कि वह उसकी आर्थिक जरूरतें भी पूरी कर रहा है, उसे अपनी गलतियों का एहसास होने नहीं देता. ऐसे में पत्नी की आर्थिक मदद वह जिम्मेदारी के तौर पर नहीं बल्कि एहसान समझकर करता है और इसके बदले उसके साथ कोई भी बदसलूकी करना अपना अधिकार समझने लगता है जो परिस्थितियां और बिगाड़ देती हैं. एक प्रकार से वह स्त्री की तरफ से लापरवाह हो जाता है कि वह इसे सहेगी. यह कानून न सिर्फ उनकी यह लापरवाही तोड़ेगा बल्कि स्त्रियों को हिंसा के खिलाफ बिना डर आगे आने के लिए उसका संबल भी बनेगा. इस तरह घरेलू हिंसा में तो कमी आ ही सकती है लेकिन साथ ही तलाक के बाद संपत्ति के बँटवारे का डर उसे पत्नी के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए प्रेरित करेगा. इस प्रकार पति पक्ष की कमियों के कारण होने वाले तलाक कम हो जाएंगे. जहां तक सवाल है पत्नियों द्वारा इसका फायदा उठाए जाने की तो इस आशंका से बचने और कम करने के लिए इसका फायदा उठाए जाने की स्थिति में कड़े दंड के प्रावधान किए जाने चाहिए. सबसे महत्वपूर्ण बात कि इसे स्त्री या पुरुष के पक्ष-विपक्ष का सवाल न बनाकर कमजोर पक्ष के हित का सवाल बनाया जाना चाहिए. वह पीड़ित पक्ष महिला या पुरुष कोई भी हो सकता है.
 
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